बचपन की बात है| मेरे गाँव का एक व्यक्ति दिल्ली घूम कर आया था| उसने बताया कि दिल्ली में पीने के लिए पानी की बोतलें बिकती हैं, और तो और हाथ धोने के लिए भी पानी खरीदनी पड़ती है|यह
बात हमारे लिए एक चुटकुले की तरह था और विस्मयकारी भी था क्योंकि हमें तो जब भी
जहाँ भी पानी पीने की आवश्यकता हुई वहीं हैंडपंप, कुएँ या
किसी नल से पानी पी लेते थे| कुछ न मिलने पर चाय या मिठाई की
दूकान से पानी माँगकर पी लेते थे| पानी का खरीदना तो हमारी
कल्पना से ही परे था| बात अगर रेगिस्तानी इलाके की होती तो
समझ में आता पर सिर्फ शहरी इलाका होने के कारण पानी का बिकना उस समय तो हमें हैरत
में डाल गया परंतु आज हमारे उसी गाँव मे लोग प्रतिदिन पानी खरीदकर पीते हैं| सिर्फ 15-16 सालों में पूरा परिदृश्य ही बदल गया और आने वाले अब 10 सालों
में भी इसी तरह पूरा का पूरा परिदृश्य ही बदलने वाला है|
वाटरएड की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक
भारत की आधी आबादी पानी के अभाव से जूझ रही होगी| यह हाल तब है जब
भारत तीन तरफ से पानी से घिरा हुआ एक प्रायद्वीपीय देश है और यहाँ बाढ़ से
प्रतिवर्ष हजारों लोगों की मौत हो जाती है| विश्व में सबसे ज्यादा
वर्षा वाला स्थान मवसिनराम और चेरापूंजी भी भारत में ही है|
इन सबके बावजूद एक भयावह तथ्य पर नजर डाल लीजिए|
कुछ साल पहले झारखंड में हुए
एक सर्वे के अनुसार झारखंड के 196 नदियों में से 133 नदियाँ सूख चुकी हैं| ये हाल सिर्फ झारखंड का ही नहीं है पूरे देश में हिमालयी
नदियों को छोडकर लगभग सारी बारहमासी नदियाँ अब बरसाती नाली बनकर रह गई हैं| हिमालयी नदी गंगा भी विश्व के उन पाँच सर्वाधिक संकटापन्न नदियों में
शामिल है जो अपने अस्तित्व बचाने की भीषण लड़ाई लड़ रही है|
प्रश्न अब यह उठता है कि इतना विरोधाभाष
क्यों है? तुरंत बाढ़ और तुरंत से सूखा क्यों ? उत्तर यह है कि हम प्रकृति से दूर चले गए| हमारे
पूर्वजों के लिए तो प्रकृति की रक्षा ही उनके धर्म और संस्कार थे परंतु आज अपने
धर्म-संस्कृति के विरोध करने को हमने स्वयं को वैज्ञानिक,
व्यवहारिक और प्रगतिशील बनाने का आधार बना लिया है| इससे हम
न सिर्फ अपनी सभ्यता-संस्कृति से दूर हुए बल्कि प्रकृति से ही दूर हो गए| समय के साथ परिवर्त्तन तो आवश्यक है परंतु सुधार करने वाली सकारात्मक
रवैये के बजाय हमने विरोध करने का नकारात्मक रवैया अपना लिया| एक उदाहरण देखिये-
सावन का महीना था और सोमवार का दिन था| पूजा करके मैं मंदिर से बाहर निकला|
बाहर बैठे भिखारियों को प्रसाद के फल-मिठाई,बचे हुए दूध और
कुछ को पैसे बांटकर अपने घर की ओर बढ़ा ही था कि मेरा दोस्त संजीव मिल गया| ‘ओ माई गॉड’ फिल्म से प्रभावित उसने उस फिल्म
के कई डाइलोग मुझे सुना दिये कि शिवलिंग पर दूध चढ़ाने की बजाय उसे गरीबों में बाँट
दो| मैंने सोचा कि आज ये मंदिर के पास ही मिल
गया है तो आज अच्छा मौका है इसे वास्तविकता से अवगत कराने का| मैंने उसे मंदिर के बाहर कुछ देर खड़े रखा और मंदिर से निकलने वाले लोगों
पर ध्यान देने को कहा| हर व्यक्ति मंदिर से बाहर आने के बाद
गरीबों में कुछ न कुछ बाँट रहा था| फिर मैंने अपने दोस्त से
पूछा कि क्या उसने कभी गरीबों को जाकर दूध बाँटा है तो उसने ना में जवाब दिया| फिर उसे मैंने समझाया कि इन गरीबों की झोली में दूध ही नहीं बल्कि इसके
साथ अन्न, फल और मिठाई डालने वाले वही लोग हैं जो यहाँ
शिवलिंग पर दूध डालने आते हैं| फिर उसे मंदिर के अंदर
शिवलिंग के पास ले गया और नंदी को ओर इशारा किया जहाँ श्रद्धालु नंदी को प्यार से
पुचकार रहे थे उसके गले में बँधी घण्टियाँ बजा रहे थे और उसके बड़े से कान में अपना
दुखड़ा सुना रहे थे| जिस साँड़ को लोग अनुपयोगी समझकर उसे जन्म
लेते ही मार दिया करते हैं उसी साँड़ को लोग मंदिर में अपना दुखहर्त्ता समझ उसकी
पूजा कर रहे थे| साँड़ की पूजा करने का रिवाज बनाने वाले
हमारे पूर्वज अज्ञानी नहीं थे बल्कि अज्ञानी हम हैं जो इसमें छिपे संदेश को समझ
नहीं पाए| आज स्थिति ये है कि हमारे दूधारू नस्ल के करीब 80%
देशी साँड़ विलुप्त हो चुके हैं| जिस तरह से नए वैज्ञानिक परीक्षण में विदेशी
नस्ल की गायों के दूध में खतरनाक बीमारियों को पैदा करने वाले तत्व पाए जा रहे हैं
तो वह दिन भी दूर नहीं जब हम देशी साँड़ों को ढूँढेंगे और वो मिलेंगे नहीं| जिस शिव पर लोग दूध की बर्बादी का दोष मढ़ते हैं उसी शिव की वजह से ही ये साँड़
अभी पूरी तरह विलुप्त होने से बचे हुए हैं क्योंकि शिव के वाहन होने के कारण ही
साँड़ को जन्म के समय कुछ लोग मारने के बजाय श्रद्धावश जीवित छोड़ देते हैं| साँड़ की उपयोगिता को समझने के लिए एक तथ्य देखिये-
भारत में 5 साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण से मर जाते हैं| भारत के करीब 40% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं| कुपोषण को दूर करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन दूध है जिसकी उपलबद्धता
भारत में प्रति व्यक्ति 355gm प्रतिदिन है जबकि बच्चों को
प्रतिदिन 1 लीटर दूध की आवश्यकता होती है| कितना विरोधाभाष
है कि गायों के सबसे अधिक संख्या वाले देश भारत जोकि गाय का उत्पत्ति-स्थान है और
जहाँ गाय की सर्वश्रेष्ठ प्रजातियाँ पाई हैं, उस देश में दूध
की इतनी कमी है और बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं|
नंदी के बाद मैंने शिवलिंग के गले की हार की
ओर इशारा किया जो किसी सोने-चाँदी या फूलों का नहीं बल्कि नाग सर्प का था| जिस नाग-सर्प को लोग बाहर देखते ही मार देते हैं उसी सर्प से
लोग अपनी सुख-समृद्धि की कामना कर रहे थे| हमारे पूर्वजों को
पता था कि विषैले होने के कारण सर्पों का अस्तित्व खतरे में आयेगा लेकिन यह
प्राकृतिक संतुलन के लिए आवश्यक है इसलिए इसे बचाने के लिए भगवान शिव के गले का हार बना दिया गया| यही कहानी शिव को चढ़ाए जाने वाले विषैले और अनुपयोगी समझे जाने वाले
फल-फूल आक,धतूरे,भांग,बेलपत्र की भी है क्योंकि विषैले समझे जाने वाले ये पादप खुद खतरनाक से
खतरनाक विष को नाश करने की क्षमता रखने वाले एक शक्तिशाली औषध हैं| ये सब सुनकर संजीव को यह समझ में आ गया कि शिव तो प्रकृति की रक्षा के
लिए बने हैं पर हम स्वार्थी मनुष्यों ने आजतक शिव को बस अपनी कामना पूर्ति का माध्यम
समझा और हम यह भूल गए कि बिना प्रकृति से प्रेम किए शिव जी की भी कृपा हम पर नहीं
होगी|
इसके बाद मैंने उसे भगवान शिव कि जटाओं में
विराजमान माँ गंगा को दिखाया| गंगा नदी की
महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि गंगा नदी भारत की करीब 43% जनसंख्या का
बोझ अकेले उठाती है| समूचे विश्व में गंगा
ही एक ऐसी नदी है जिसका पानी कभी खराब नहीं होता| भारत के
करीब आधी जनसंख्या का पालन-पोषण करने के बाद भी गंगा नदी की हमने ऐसी उपेक्षा की
कि आज यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी है| उत्तराखंड उच्च
न्यायालय ने गंगा नदी को मानवीय अधिकार प्रदान किए जिससे गंगा का अस्तित्व बचा रह
सके| गंगा नदी के मानवीकरण का जो कार्य न्यायालय ने अब किया है
वही कार्य हमारे पूर्वज आज से हजारों वर्ष पहले ही कर चुके थे|
हमारे पूर्वजों ने हमारी ऐसी संस्कृति
विकसित की थी कि हमारे सारे रीति-रिवाजों, पर्व-त्योहारों, उत्सवों, व्रतों आदि का प्रकृति एक अभिन्न हिस्सा
हुआ करती थी| शायद ही कोई ऐसा व्रत हो जो तालब-नदी या
पेड़-पौधों के बिना पूर्ण होता हो| शादी-विवाह में पनभरन की
एक रस्म निभाई जाती है जिसमें ढोल-बाजे के साथ गीत गाते हुए कुएं या तालाब जैसे
जलाशय पर जाकर मटके में पानी भरना होता है| इसके बाद आमौर
ब्याहने की रस्म निभाई जाती है जिसमें इसी तरह से गाजे-बाजे के साथ आम के पेड़ के
साथ शादी की जाती है|
बात यह है कि हमारे पूर्वजों ने तो हर तरीके
से हमें प्रकृति के साथ जोड़े रखने का प्रयास किया परंतु हम कभी समझ नहीं पाये
जिसका परिणाम आज हमें भुगतना पड़ रहा है| तालाब और कुओं का
महत्त्व हमने समझा होता तो आज भूमिगत जल-स्रोत इतना कम ना हुआ होता| पेड़ के महत्त्व को हमने समझा होता तो आज वायु-प्रदूषण की स्थिति इतनी
भयावह न हुई होती|
वर्ष 2017 के एक सर्वे के अनुसार विश्व
में वायु-प्रदूषण से होने वाली 49 लाख मौतों में 12 लाख मौतें सिर्फ भारत में हुई| विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के
प्रत्येक 10 में से 9 व्यक्ति प्रदूषित हवा में साँस लेने के लिए मजबूर है| वायु-प्रदूषण से होने वाली हर 3 में से 2 मौतें भारत और दक्षिण-पूर्व
एशिया में होती है| एनवायरनमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स के 178
देशों की सूची में भारत 155वें स्थान पर है जो पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्री लंका से भी पीछे है|
सोचने वाली बात है
कि आज से हजारों साल पहले जब आज की तरह न तो गंगा नदी संकट में थी और न ही साँड़ या
नाग फिर भी हमारे दूरदर्शी पूर्वजों ने भविष्य के खतरे की आहट भाँप ली थी| अब यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि हमारे पूर्वजों की सोच
पिछड़ी हुई थी या हमारी, क्योंकि उनकी बातों को समझने में
हमें हजारों साल लग गए|
भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि पीपल के
पेड़ में सभी देवताओं का वास होता है| हम भले ही पेड़ों की पूजा न करें पर स्वच्छ
हवा पाने के लिए पेड़ तो लगाने होंगे| हम भले ही नदियों को देवी न मानें पर प्यासा
मरने से बचना है तो नदियों-तालाबों को बचाने का प्रण तो लेना ही होगा| हम भले ही गाय को माता न समझें पर कुपोषण से बचना है तो गौवंश
की रक्षा तो करनी पड़ेगी| हमें अपने सभ्यता-संस्कृति के नजदीक जाना होगा| उसमें
छिपे संदेशों को समझना होगा और अपने पर्यावरण को बचाने का हर संभव प्रयास करना
होगा| हमने तकनीकी विकास को ही तरक्की का पैमाना मान लिया है| इस सोच को हमें
बदलना होगा| पानी को जहर बनाकर फिर उसे साफ करने के लिए आर ओ वाटर प्यूरीफायर
बनाकर हम इसे अपनी तरक्की समझते हैं| हमें आज पुनर्विचार करना होगा कि हमने क्या
खोकर क्या पाया है| जीने के सारे संसाधनों से परिपूर्ण धरती को उजाड़ बनाकर हम एक
उजाड़ मंगल ग्रह को आबाद करके वहाँ मानव बस्तियाँ बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं|
इसे हम अपनी वैज्ञानिक उपलब्द्धि समझकर इतरा रहे हैं| हम भले ही दूसरी ग्रह पर
मानव बस्तियाँ बसाने में सफल हो जाएँ पर यह हमारी सफलता नहीं बल्कि पृथ्वी को
बचाकर न रख पाने की एक बहुत बड़ी विफलता होगी|
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