शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

अपने किसी भी कुरीतियों के लिए भारतीयों को शर्म नहीं गर्व होनी चाहिए......

हमारी सभी कुरीतियाँ या कुप्रथाएँ हमारी महान सभ्यता-संस्कृति के प्रमाण हैं।
पिछले लेख में मैंने बताया था कि किस तरह से हमारी नारियों द्वारा प्रेम और भक्ति से प्रेरित होकर स्वेच्छा से किया जाने वाला कार्य को दुश्मनों ने रिवाज या प्रथा या परंपरा की तरह निभाने को विवश कर दिया हमारे समाज को।और फिर जब यह सती-कर्म प्रथा बनी तो इस प्रथा की आढ़ में कुछ गंदे लोगों ने हत्याएँ करनी शुरू कर दी और इसी हत्या वाले कर्म को सती-प्रथा का नाम देकर सती-कर्म को ही बदनाम कर दिया गया और इसके साथ ही बदनाम हो गई हमारी वो महान नारियां जिसने दुश्मनों के हाथों अपना शील-भंग होने से बचाने के लिए स्वंय को अग्नि के हवाले कर दिया था।
एक प्रश्न आपलोगों से-- क्या जबर्दस्ती किसी विधवा नारी को पति की जलती हुई चिता की अग्नि में ढकेल देने वाले कर्म को
सती-कर्म की संज्ञा दी जा सकती है जिस सती कर्म को नारियाँ अपनी इज्जत बचाने के लिए किया करती थी???
अगर नहीं तो फिर क्यों अपमानित महसूस करते हैं हम भारतीय अपने आपको और क्यों मूर्ख समझा जाता है हमारे पूर्वजों को???
अब आगे इस लेख में मैं उन सभी कुरीतियों की चर्चा करूंगा जिसके कारण आज तक भारतीयों को अपमानित किया जाता है।सती-प्रथा के बाद सबसे ज्यादा जाति-प्रथा या छुआछूत के लिए भारतीयों को अपमानित किया जाता है।बेशक वर्त्तमान में जो जातिवाद या छूआछूत का रूप हमें दिखलाई पड़ता है वो तो घृणित है ही पर हमारे पूर्वज इसके लिए निंदनीय नहीं हैं।इसके लिए भी विदेशी कारक ही उत्तरदायी हैं...और भले ही इसके लिए खुद हम भी बहुत हद तक उत्तरदायी हैं पर इस बात के लिए भी हमें शर्म करने की जरूरत नहीं बल्कि गर्व करना चाहिए हमें क्योंकि घोड़े पर बैठने वाला ही गिरता है पैदल चलने वाला नहीं।
अब आपही लोग बताइए कि अगर घोड़े की सवारी करते-करते एक दिन किसी कारणवश(चाहे गलती किसी की भी रही हो) आप घोड़े से गिरकर घायल हो जाते हैं या मान लीजिए आपका पैर टूट जाता है तो पैदल चलने वाले और गधे की सवारी करने वाले लोग जो आपके घोड़े की सवारी से जला करते थे उन्हें तो बहाना मिल जाएगा आपको बुरा-भला कहने का तो वो तो कहेंगे ही कि-
""और चढ़ो घोड़े पर... पैर-हाथ टूटा ना!""
तो वोलोग जब आपकी हंसी उड़ानी शुरू कर देंगे तो क्या आप अपने आप को अपमानित महसूस करेंगे??
या आपको पश्चाताप होने लगेगा कि--"बेकार ही घोड़े से यात्रा किया करते थे,गधे पर ही बैठते तो ठीक रहता" ???
मुझे पता है कि आपका उत्तर नहीं में ही होगा।आप ऐसी स्थिति में भी उनलोगों के बीच अपने टूटे हुए हाथ-पैर के लिए शर्म नहीं
करेंगे क्योंकि ये आपकी घोड़े के सवारी की निशानी है यानि आपके शान की पहचान है।
आप घोड़े की सवारी छोडकर गधे की सवारी शुरू नहीं कर देंगे बल्कि हाथ-पैर ठीक होने की प्रतीक्षा करेंगे और फिर उसी शान से घोड़े को दौड़ाना शुरू कर देंगे।
है ना??
तो फिर आज ऐसा हाल क्यों है आपका??क्यों आज एक गधे की सवारी करने वाले के मज़ाक उड़ा देने के कारण आपने शर्म के कारण घोड़े की सवारी छोड दी और गधे पर जाकर बैठ गए??
अरे हम तो वो भारतीय हैं तो तन से ही नहीं बल्कि मन से भी शुद्धता का पालन करते हैं।हमारा देश तो वो देश है जहां भिखारी भी गंदे हाथों से भीख नहीं लेता।भारत तो अति शुद्धता-पवित्रता वाला देश है जहां पड़ोस के भी किसी घर में कोई अशुभ कार्य होने पर हम अपने घरों को यज्ञ-हवन कराकर शुद्ध कर लेते हैं।जब हम नहा-धोकर अपने तन को पवित्र कर पूजा करने की तैयारी करते हैं तो बिना स्नान किए हुए अपने परिवार के लोगों को भी अपने से स्पर्श होने तक नहीं देते हैं हम कि कहीं हम अपवित्र ना हो जाएँ जो गलत भी नहीं है।
अब स्वाभाविक सी बात है कि जब हम इतना ज्यादा शुद्धता पर ध्यान देंगे तो कहीं ना कहीं हमसे चूक होगी ही।हम जितनी ज्यादा ऊंचाई पर रहेंगे हमारे गिरने की संभावना उतनी ही ज्यादा रहेगी।इसलिए शुद्धता बरतते-बरतते भारतीय समाज में अस्पृश्यता जैसी बुराई ने कब घर कर लिया और ये अस्पृश्यता कब नफरत में बदल गई ये उसे पता भी नहीं चल पाया।पर भारतीय समाज अस्पृश्यता तो अस्थाई रूप से अशुद्ध लोगों से बरतता था चाहे वो उसका अपना पिता या पुत्र ही क्यों ना हो इसे जातिवाद के रूप में विदेशियों ने ज्यादा घृणित बना दिया।
एक उदाहरण देखिए--आज डोम-हाड़ी जिसे शूद्र कहा जाता है जो सूअर पालने वाली एक घृणित जाति के रूप में जानी जाती है जिससे खुद हिन्दू ही घृणा करते हैं जबकि इस जाति का हिंदुओं पर एक बहुत बड़ा ऋण है।जब मुसलमान हिंदुओं पर मुसलमान बनने के लिए असहनीय अत्याचार कर रहे थे,हिन्दू नारियों का शील-भंग कर रहे थे और पुरुषों का अंग-भंग कर रहे थे तब कुछ हिंदुओं ने इनसे बचने के लिए एक तरीका निकाला और सूअर के साथ रहना शुरू कर दिया ताकि मुसलमानों के अत्याचार से बच सके।सूअर के साथ रहते हुए ये गंदे कामों के आदि हो गए और एक जाति के रूप में घृणित हो गए।
जहां तक जाति-प्रथा की बात है तो यह प्राचीन समाज में प्रचलित नहीं था।पहले व्यक्ति की योग्यता तथा उसका गुण ही व्यक्ति का परिचय होता था उसकी जाति नहीं।इसके प्रमाण के लिए आप किसी भी स्वयंबर को देख लीजिए।माँ सीता के स्वयंबर में क्षत्रिय भी आते हैं,ब्राह्मण भी आते हैं और राक्षस जाति का रावण भी।द्रोपदी के स्वयंबर में भी क्षत्रिय,ब्राह्मण के साथ सूत-पूत कर्ण भी आता है।कर्ण हमेशा एक सारथी का पुत्र होने के लिए अपमानित होता है किसी जाति के लिए नहीं।खुद पांडवों के वंशज शांतनु एक मछुआरे की बेटी से शादी करते हैं।
पहले व्यक्ति की पहचान सिर्फ उसके कर्म से होती थी फिर 300ई॰पूर्व के आसपास चाणक्य के ग्रंथ में वर्ण-व्यवस्था दिखाई पड़ती है,पर यह वर्ण-व्यवस्था इस समाज को चलाने के लिए बनाया गया था।फिर यह वंशानुगत होकर वर्ण व्यवस्था से जाति-व्यवस्था में परिवर्त्तित हो गया।ये भी होना आवश्यक था ताकि गुणों का क्रमशः विकास होता जाय,कभी खत्म ना हो।जैसे लोहार ने अपने गुण अपने पुत्र को दिए,बढ़ई ने अपनी कला अपने पुत्र को,ब्राह्मण ने अपना ज्ञान अपने पुत्र को।पर पहले कोई छोटा-बड़ा नहीं होता था और किसी में कोई भेदभाव नहीं था।सभी को समान अवसर उपलब्ध थे चाहे वो शिक्षा-प्राप्ति का हो या कोई अन्य अधिकार।
फिर लगातार विदेशी आक्रमणों के कारण भारत के शिक्षा-केंद्र नष्ट होने लगे।लोग ज्यादा संख्या में अपने सभ्यता-संस्कृति से कटने लगे,और अनपढ़ होने के कारण मूर्ख रहने लगे।फिर इसी मूर्खता के कारण हमारे सभी महान सभ्यता-संस्कृति प्रदूषित होने लगी क्योंकि लोगों ने अर्थ का अनर्थ करना शुरू कर दिया।
इस प्रकार कुछ तो हमारी गलती से और कुछ विदेशी आक्रमणों के कारण हमारी विपरीत परिस्थिति के कारण हमारी हरेक अच्छी चीजें बुरी बन गई।हमारी सभी महान रीतियाँ कुरीतियाँ बनती चली गई।
आप इन कुरीतियों के कारण तो शर्मिंदगी महसूस करते हैं पर क्या उस महान रीति पर गर्व करते हैं जो कुरीति बनने से पहले हमारी महान सभ्यता-संस्कृति का आईना थी??
हमें घोड़े से गिराकर घायल कर देने वाला आज अट्टाहास कर रहा है और हम अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं......क्या ये सही है??
जिस व्यक्ति का अपना स्वाभिमान खत्म हो जाता है वो दास बन जाता है,शर्मिंदगी में जीने वाला व्यक्ति कभी अपना विकास नहीं कर सकता।विदेशियों के विकास करते रहने रहने का यही कारण है कि बचपन से ही वो गर्व महसूस करते हैं,उन्हें अपने पूर्वजों पर गर्व होता है।उनके मस्तिष्क में यह बात बैठी हुई होती है कि जब उनके पूर्वज इतने महान कार्य कर सकते थे तो वो भी महान कार्य कर सकते हैं यही मानसिकता उन्हें मानसिक बल देता है जो उनसे कोई भी काम करा देता है।इसके विपरीत हम भारतीय हमेशा यह सोचते रहते हैं कि हमारे पूर्वज तो मूर्ख थे किसी काम के नहीं थे इसलिए हम भारतीय भी किसी काम के लायक नहीं तो बताइए कैसे विकास हो पाएगा हमारा।शारीरिक रूप से संसार का सबसे दूबल व्यक्ति भी सिर्फ आत्मविश्वास अर्थात मानसिक बल पर पूरे विश्व को जीत सकता है।
इसलिए जब आप अपने पूर्वजों को घोड़े से गिरे हुए घायल व्यक्ति के रूप में देखते हैं तो शर्म मत करिए गर्व करिए कि आपके पूर्वज गिरकर घायल होने से पहले उस युग में भी तीव्र वेग से घोडा दौड़ाया करते थे जिस युग में विश्व के लोग गिर जाने के डर से गधे पर भी बैठने से डरा करते थे,जिस युग को पश्चिम वाले अंधकार युग कहते हैं।अपने महान पूर्वजों को याद करके हमें तो फिर से निडर होकर घोड़े पर बैठना है और घोड़े को ज़ोर का एड़ लगाकर इतने वेग से पूरे विश्व में घोडा दौड़ाना है जिसके टापों की आवाज से पूरा विश्व भयाक्रांत हो जाए,इससे उड़ने वाले धूलों के गुबार से पूरा विश्व ढक जाय,सिर्फ भारत ही नजर आए इस धरती के मानचित्र पर।

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