बुधवार, 21 अगस्त 2019

विनाश की ओर अग्रसर विकास


बचपन की बात है| मेरे गाँव का एक व्यक्ति दिल्ली घूम कर आया था| उसने बताया कि दिल्ली में पीने के लिए पानी की बोतलें बिकती हैं, और तो और हाथ धोने के लिए भी पानी खरीदनी पड़ती है|यह बात हमारे लिए एक चुटकुले की तरह था और विस्मयकारी भी था क्योंकि हमें तो जब भी जहाँ भी पानी पीने की आवश्यकता हुई वहीं हैंडपंप, कुएँ या किसी नल से पानी पी लेते थे| कुछ न मिलने पर चाय या मिठाई की दूकान से पानी माँगकर पी लेते थे| पानी का खरीदना तो हमारी कल्पना से ही परे था| बात अगर रेगिस्तानी इलाके की होती तो समझ में आता पर सिर्फ शहरी इलाका होने के कारण पानी का बिकना उस समय तो हमें हैरत में डाल गया परंतु आज हमारे उसी गाँव मे लोग प्रतिदिन पानी खरीदकर पीते हैं| सिर्फ 15-16 सालों में पूरा परिदृश्य ही बदल गया और आने वाले अब 10 सालों में भी इसी तरह पूरा का पूरा परिदृश्य ही बदलने वाला है|
      वाटरएड की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक भारत की आधी आबादी पानी के अभाव से जूझ रही होगी| यह हाल तब है जब भारत तीन तरफ से पानी से घिरा हुआ एक प्रायद्वीपीय देश है और यहाँ बाढ़ से प्रतिवर्ष हजारों लोगों की मौत हो जाती है| विश्व में सबसे ज्यादा वर्षा वाला स्थान मवसिनराम और चेरापूंजी भी भारत में ही है| इन सबके बावजूद एक भयावह तथ्य पर नजर डाल लीजिए|
कुछ साल पहले  झारखंड में हुए एक सर्वे के अनुसार झारखंड के 196 नदियों में से 133 नदियाँ सूख चुकी हैं| ये हाल सिर्फ झारखंड का ही नहीं है पूरे देश में हिमालयी नदियों को छोडकर लगभग सारी बारहमासी नदियाँ अब बरसाती नाली बनकर रह गई हैं| हिमालयी नदी गंगा भी विश्व के उन पाँच सर्वाधिक संकटापन्न नदियों में शामिल है जो अपने अस्तित्व बचाने की भीषण लड़ाई लड़ रही है|
      प्रश्न अब यह उठता है कि इतना विरोधाभाष क्यों है? तुरंत बाढ़ और तुरंत से सूखा क्यों ? उत्तर यह है कि हम प्रकृति से दूर चले गए| हमारे पूर्वजों के लिए तो प्रकृति की रक्षा ही उनके धर्म और संस्कार थे परंतु आज अपने धर्म-संस्कृति के विरोध करने को हमने स्वयं को वैज्ञानिक, व्यवहारिक और प्रगतिशील बनाने का आधार बना लिया है| इससे हम न सिर्फ अपनी सभ्यता-संस्कृति से दूर हुए बल्कि प्रकृति से ही दूर हो गए| समय के साथ परिवर्त्तन तो आवश्यक है परंतु सुधार करने वाली सकारात्मक रवैये के बजाय हमने विरोध करने का नकारात्मक रवैया अपना लिया| एक उदाहरण देखिये-
      सावन का महीना था और सोमवार का दिन था| पूजा करके मैं मंदिर से बाहर निकला| बाहर बैठे भिखारियों को प्रसाद के फल-मिठाई,बचे हुए दूध और कुछ को पैसे बांटकर अपने घर की ओर बढ़ा ही था कि मेरा दोस्त संजीव मिल गया| ओ माई गॉड फिल्म से प्रभावित उसने उस फिल्म के कई डाइलोग मुझे सुना दिये कि शिवलिंग पर दूध चढ़ाने की बजाय उसे गरीबों में बाँट दो| मैंने सोचा कि आज ये मंदिर के पास ही मिल गया है तो आज अच्छा मौका है इसे वास्तविकता से अवगत कराने का| मैंने उसे मंदिर के बाहर कुछ देर खड़े रखा और मंदिर से निकलने वाले लोगों पर ध्यान देने को कहा| हर व्यक्ति मंदिर से बाहर आने के बाद गरीबों में कुछ न कुछ बाँट रहा था| फिर मैंने अपने दोस्त से पूछा कि क्या उसने कभी गरीबों को जाकर दूध बाँटा है तो उसने ना में जवाब दिया| फिर उसे मैंने समझाया कि इन गरीबों की झोली में दूध ही नहीं बल्कि इसके साथ अन्न, फल और मिठाई डालने वाले वही लोग हैं जो यहाँ शिवलिंग पर दूध डालने आते हैं| फिर उसे मंदिर के अंदर शिवलिंग के पास ले गया और नंदी को ओर इशारा किया जहाँ श्रद्धालु नंदी को प्यार से पुचकार रहे थे उसके गले में बँधी घण्टियाँ बजा रहे थे और उसके बड़े से कान में अपना दुखड़ा सुना रहे थे| जिस साँड़ को लोग अनुपयोगी समझकर उसे जन्म लेते ही मार दिया करते हैं उसी साँड़ को लोग मंदिर में अपना दुखहर्त्ता समझ उसकी पूजा कर रहे थे| साँड़ की पूजा करने का रिवाज बनाने वाले हमारे पूर्वज अज्ञानी नहीं थे बल्कि अज्ञानी हम हैं जो इसमें छिपे संदेश को समझ नहीं पाए| आज स्थिति ये है कि हमारे दूधारू नस्ल के करीब 80% देशी साँड़ विलुप्त हो चुके हैं|  जिस तरह से नए वैज्ञानिक परीक्षण में विदेशी नस्ल की गायों के दूध में खतरनाक बीमारियों को पैदा करने वाले तत्व पाए जा रहे हैं तो वह दिन भी दूर नहीं जब हम देशी साँड़ों को ढूँढेंगे और वो मिलेंगे नहीं| जिस शिव पर लोग दूध की बर्बादी का दोष मढ़ते हैं उसी शिव की वजह से ही ये साँड़ अभी पूरी तरह विलुप्त होने से बचे हुए हैं क्योंकि शिव के वाहन होने के कारण ही साँड़ को जन्म के समय कुछ लोग मारने के बजाय श्रद्धावश जीवित छोड़ देते हैं| साँड़ की उपयोगिता को समझने के लिए एक तथ्य देखिये-
भारत में 5 साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण से मर जाते हैं| भारत के करीब 40% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं| कुपोषण को दूर करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन दूध है जिसकी उपलबद्धता भारत में प्रति व्यक्ति 355gm प्रतिदिन है जबकि बच्चों को प्रतिदिन 1 लीटर दूध की आवश्यकता होती है| कितना विरोधाभाष है कि गायों के सबसे अधिक संख्या वाले देश भारत जोकि गाय का उत्पत्ति-स्थान है और जहाँ गाय की सर्वश्रेष्ठ प्रजातियाँ पाई हैं, उस देश में दूध की इतनी कमी है और बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं|
      नंदी के बाद मैंने शिवलिंग के गले की हार की ओर इशारा किया जो किसी सोने-चाँदी या फूलों का नहीं बल्कि नाग सर्प का था| जिस नाग-सर्प को लोग बाहर देखते ही मार देते हैं उसी सर्प से लोग अपनी सुख-समृद्धि की कामना कर रहे थे| हमारे पूर्वजों को पता था कि विषैले होने के कारण सर्पों का अस्तित्व खतरे में आयेगा लेकिन यह प्राकृतिक संतुलन के लिए आवश्यक है इसलिए इसे बचाने के लिए  भगवान शिव के गले का हार बना दिया गया| यही कहानी शिव को चढ़ाए जाने वाले विषैले और अनुपयोगी समझे जाने वाले फल-फूल आक,धतूरे,भांग,बेलपत्र की भी है क्योंकि विषैले समझे जाने वाले ये पादप खुद खतरनाक से खतरनाक विष को नाश करने की क्षमता रखने वाले एक शक्तिशाली औषध हैं| ये सब सुनकर संजीव को यह समझ में आ गया कि शिव तो प्रकृति की रक्षा के लिए बने हैं पर हम स्वार्थी मनुष्यों ने आजतक शिव को बस अपनी कामना पूर्ति का माध्यम समझा और हम यह भूल गए कि बिना प्रकृति से प्रेम किए शिव जी की भी कृपा हम पर नहीं होगी|
      इसके बाद मैंने उसे भगवान शिव कि जटाओं में विराजमान माँ गंगा को दिखाया| गंगा नदी की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि गंगा नदी भारत की करीब 43% जनसंख्या का बोझ अकेले उठाती है|  समूचे विश्व में गंगा ही एक ऐसी नदी है जिसका पानी कभी खराब नहीं होता| भारत के करीब आधी जनसंख्या का पालन-पोषण करने के बाद भी गंगा नदी की हमने ऐसी उपेक्षा की कि आज यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी है| उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा नदी को मानवीय अधिकार प्रदान किए जिससे गंगा का अस्तित्व बचा रह सके| गंगा नदी के मानवीकरण का जो कार्य न्यायालय ने अब किया है वही कार्य हमारे पूर्वज आज से हजारों वर्ष पहले ही कर चुके थे|
      हमारे पूर्वजों ने हमारी ऐसी संस्कृति विकसित की थी कि हमारे सारे रीति-रिवाजों, पर्व-त्योहारों, उत्सवों, व्रतों आदि का प्रकृति एक अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी| शायद ही कोई ऐसा व्रत हो जो तालब-नदी या पेड़-पौधों के बिना पूर्ण होता हो| शादी-विवाह में पनभरन की एक रस्म निभाई जाती है जिसमें ढोल-बाजे के साथ गीत गाते हुए कुएं या तालाब जैसे जलाशय पर जाकर मटके में पानी भरना होता है| इसके बाद आमौर ब्याहने की रस्म निभाई जाती है जिसमें इसी तरह से गाजे-बाजे के साथ आम के पेड़ के साथ शादी की जाती है|
      बात यह है कि हमारे पूर्वजों ने तो हर तरीके से हमें प्रकृति के साथ जोड़े रखने का प्रयास किया परंतु हम कभी समझ नहीं पाये जिसका परिणाम आज हमें भुगतना पड़ रहा है| तालाब और कुओं का महत्त्व हमने समझा होता तो आज भूमिगत जल-स्रोत इतना कम ना हुआ होता| पेड़ के महत्त्व को हमने समझा होता तो आज वायु-प्रदूषण की स्थिति इतनी भयावह न हुई होती|
      वर्ष 2017 के एक सर्वे के अनुसार विश्व में वायु-प्रदूषण से होने वाली 49 लाख मौतों में 12 लाख मौतें सिर्फ भारत में हुई| विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के प्रत्येक 10 में से 9 व्यक्ति प्रदूषित हवा में साँस लेने के लिए मजबूर है| वायु-प्रदूषण से होने वाली हर 3 में से 2 मौतें भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में होती है| एनवायरनमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स के 178 देशों की सूची में भारत 155वें स्थान पर है जो पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्री लंका से भी पीछे है|
सोचने वाली बात है कि आज से हजारों साल पहले जब आज की तरह न तो गंगा नदी संकट में थी और न ही साँड़ या नाग फिर भी हमारे दूरदर्शी पूर्वजों ने भविष्य के खतरे की आहट भाँप ली थी| अब यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि हमारे पूर्वजों की सोच पिछड़ी हुई थी या हमारी, क्योंकि उनकी बातों को समझने में हमें हजारों साल लग गए|
      भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि पीपल के पेड़ में सभी देवताओं का वास होता है| हम भले ही पेड़ों की पूजा न करें पर स्वच्छ हवा पाने के लिए पेड़ तो लगाने होंगे| हम भले ही नदियों को देवी न मानें पर प्यासा मरने से बचना है तो नदियों-तालाबों को बचाने का प्रण तो लेना ही होगा| हम भले ही गाय को माता न समझें पर कुपोषण से बचना है तो गौवंश की रक्षा तो करनी पड़ेगी| हमें अपने सभ्यता-संस्कृति के नजदीक जाना होगा| उसमें छिपे संदेशों को समझना होगा और अपने पर्यावरण को बचाने का हर संभव प्रयास करना होगा| हमने तकनीकी विकास को ही तरक्की का पैमाना मान लिया है| इस सोच को हमें बदलना होगा| पानी को जहर बनाकर फिर उसे साफ करने के लिए आर ओ वाटर प्यूरीफायर बनाकर हम इसे अपनी तरक्की समझते हैं| हमें आज पुनर्विचार करना होगा कि हमने क्या खोकर क्या पाया है| जीने के सारे संसाधनों से परिपूर्ण धरती को उजाड़ बनाकर हम एक उजाड़ मंगल ग्रह को आबाद करके वहाँ मानव बस्तियाँ बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं| इसे हम अपनी वैज्ञानिक उपलब्द्धि समझकर इतरा रहे हैं| हम भले ही दूसरी ग्रह पर मानव बस्तियाँ बसाने में सफल हो जाएँ पर यह हमारी सफलता नहीं बल्कि पृथ्वी को बचाकर न रख पाने की एक बहुत बड़ी विफलता होगी|

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

जब पूरा विश्व दीवाना था भारतीय कपड़ों का.....

क्या आपको पता है कि अठारहवीं शताब्दी तक जब तक कि यूरोप में औद्योगिक क्रांति नहीं आई थी तब तक यूरोप,  अरब, चीन सहित पूरे विश्व को कपडे हम भारतीय ही पहनाया करते थे.यूरोप में तो बाद में सभ्यता आई पर मिश्र जो भारत की समकालीन है उसे भी हमने ही कपडे पहनाये हैं.वहाँ पाए जाने वाले ममी में भारतीय मलमल के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.ऐसा इसलिए कि सबसे पहले कपास की खेती हमने ही शुरू की थी और वस्त्र उद्योग में महारत हासिल कर ली थी हमने.पूरा विश्व भारतीय कपड़ों का दीवाना था.विदेशी भारतीय कपड़ों को पहनकर गर्व महसूस करते थे.और चूंकि वहाँ के राजे-महाराजे भारतीय कपडे पहना करते थे इसलिए आम लोगों की नजर में भारतीय पोशाकों की एक अलग इज्जत थी.इन सबके बावजूद एक बार ब्रिटेन के राजघराने में भारतीय कपड़ों पर रोक लगा दी गई थी.जानते हैं क्यों? क्योंकि उस समय भारत ने औरतों के लिए कमर के नीचे पहनने वाला एक ऐसा पोशाक तैयार किया था जो पारदर्शी था.जाहिर सी बात है कि इस तरह का पोशाक भारतीयों ने सिर्फ अंग्रेजों के लिए तो नहीं ही बनाया होगा बल्कि वो पोशाक खुद भारतीय भी पहनते होंगे.
ये सब बहुत पुरानी बाते क्यों बता रहा हूँ मैं??इसलिए कि आज जब मैं अपने भारत में लोगों की पश्चिमी कपड़ों के प्रति दीवानगी देखता हूँ तो दुःख होता है .आज तन दिखने वाले कपडे पहनना आधुनिकता का पर्याय माना जाता है जबकि पूरे कपडे पहनना पिछड़ेपन का.अगर तन दिखने वाला कपड़ा पहनना ही आधुनिकता है तो वो तो हम अठारहवीं शताब्दी में ही कर चुके हैं,तो इस हिसाब से भी भारतीय पिछड़े हुए कहाँ हैं.
आज आधुनिकता को नंगापनी और सेक्स से मापा जाता है.अगर सेक्स पर खुलेआम चर्चा करने को ही आधुनिकता का आधार बनाया जाय फिर भी हम विश्व से बहुत आगे हैं.विश्व की पहली सेक्स पर लिखी गई पुस्तक कामसूत्र है जो महर्षि वात्सयायन ने लिखी थी और ये उन्नीसवीं सदी में यूरोप पहुँची.और आपको आश्चर्य होगा कि आप जिस ब्रिटेन को इतना खुला मानसिकता वाला समझते हैं वहाँ इस पुस्तक ने कोहराम मचा दिया.काफी विवाद हुआ था इस पर तब जाके इस पुस्तक को स्थान दिया गया उस देश में.
इसके अलावे अगर नग्न होना या खुले में सेक्स करना ही आधुनिकता है तो जाकर खजुराहो में देख लीजिये.हमने तो आज से हजारों साल पहले सातवीं सदी में ही सेक्स करते हुए लोगों की नग्न मूर्तियाँ बना दी है.और ऐसी हिम्मत तो शायद अभी भी कोई पश्चिमी देश न कर पायें.
जिस समय हम अंतरिक्ष के गोलों के साथ खेल रहे थे उस समय पूरा विश्व गुल्ली-डंडे खेल रहा था.जिस समय हम यज्य में अन्न की आहुति दे रहे थे उस समय पश्चिमी देश अन्न के एक-एक दाने के लिए तरस रहा था.इतनी विकसित सभ्यता रही है हमारी .फिर क्यों आज हम खुद पर भरोसा करने के बजाय पश्चिमी देशों के पीछे भाग रहे हैं???
ये लेख मैंने उनलोगों के लिए लिखा है जो यह समझते हैं कि भारत हमेशा से पिछड़ा हुआ देश रहा है और विदेशी हमेशा से विकसित रहे हैं.और मुझे दुःख भी है कि भारत को प्राचीन काल में विकसित देश साबित करने के लिए मुझे कपडे और  सेक्स का सहारा लेना पड़ा.पर ये मेरी मजबूरी है क्योंकि अभी के युवा बस इसी की भाषा समझ रहे है.अगर मैं ये कहूंगा कि आज से हजारों साल पहले भारत में प्लास्टिक-सर्जरी हुआ करती थी तो लोग विश्वास नहीं करेंगे और हँसेंगे मुझपर.कुछ दिन पहले जब विज्ञान कांग्रेस में यह भाषण दिया जाने वाला था कि प्राचीन भारतीयों को विमान बनाने की तकनीक पता थी तो लोग हंस रहे थे और मजाक बना रहे थे..
प्राचीन काल में भारत अगर खरगोश था तो पूरा विश्व कछुआ था लेकिन घमंड में चूर भारत सो गया और कछुआ खरगोश से बहुत आगे निकल गया.आवश्यकता इस बात की है कि हम खुद को पहचाने.अपने आप पर भरोसा करें और पश्चिमी देशों के पदचिह्नों पर चलने की बजाय हम अपना रास्ता खुद बनायें.

सोमवार, 5 जनवरी 2015

मूर्ति-पूजा अगर अंधविश्वास है तो ये अंधविश्वास भी बहुत जरूरी है


सिर्फ मूर्ति-पूजा के कारण ही भारत में कई कलाओं का विकास हुआ है.मूर्ति-पूजा के कारण ही शिल्पकारी की कला का विकास हुआ,उसके बाद मूर्ति को स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े भव्य मंदिरों का निर्माण होना शुरू हुआ  जिसके कारण भारतीय स्थापत्य कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई जिसके कारण आज जब हमारे अतीत पर ज्ञान-विज्ञान में पिछड़ेपन का आरोप लगाकर हमें अपमानित करने का प्रयास किया जाता है तो ये भव्य मंदिर ही हैं जो हमारे विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देती है और कहती है कि देखो मेरी इन ऊँची-ऊँची शिखरों को जो हमारी प्राच्य-विज्ञान की ऊंचाई का प्रमाण है.कई सालों के लगातार बर्बर,असभ्य विदेशी आक्रमणों ने जान-बूझकर भारत के सारे ज्ञान-विज्ञान को नष्ट कर दिए.उन्होंने सोमनाथ मंदिर,जो उस समय के लोगों के लिए आभियांत्रिकी की अबूझ पहेली थी,उसके जैसे अनगिनत मंदिरों को नष्ट कर दिया पर फिर भी समय की लहरों के इतने सारे थपेड़े के बावजूद आज भी बृहदेश्वर और कोणार्क के सूर्यमंदिर जैसे कई मंदिर विदेशियों को उसकी औकात बता रहे हैं.इन्हीं मंदिरों की छत्र-छाया में कई कलाओं का विकास हुआ जिसमें से एक भरतनाट्यम भी है जिसका विकास शरीर के विभिन्न भाव-भंगिमाओं के द्वारा  भगवान् को प्रसन्न करने के लिए किया गया था.
मूर्ति-पूजा का सम्बन्ध धर्म से है और धर्म का सम्बन्ध आस्था से.आप इन्हें अंधविश्वास समझिये या डर या लोगों का भगवान् के प्रति विश्वास और प्रेम या लोगों की आवश्यकता या विवशता,जो भी हो  पर ये मानव जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक हैं
आप समझ सकते हैं कि ये धर्म,जिसे आजकल अपने आपको बहुत ही ज्यादा समझदार समझने वाले लोग डर और अंधविश्वास का नाम दे रहे हैं,इस एक धर्म ने ही लोगों को कितनी सारी कलाओं के विकास के लिए प्रेरित किया है.हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए ये धर्म,भगवान्,आस्था,मूर्ति-पूजा आदि अंधविश्वास हो पर ये अन्धविश्वास मानव के बहुत जरुरी है क्योंकि ये अंधविश्वास ही मानव को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है,उसे अच्छे काम के लिए प्रोत्साहित करती है और बुरे काम के लिए हतोत्साहित.धर्म ही है जो लोगों को एकजुट करती है,एक-दूसरे का सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित और मजबूर भी करती है.क्योंकि बहुत सारे व्रत ऐसे होते हैं जिन्हें संपन्न करने के लिए आपसी सहयोग आवश्यक होता है.
इसके अलावे हमारे जीवन में खुशियाँ भरने वाले बहुत से त्योहार मूर्ति-पूजा से ही जुड़े हुए है.चाहे वो सरस्वती-पूजा हो जिसके उपलक्ष्य में स्कूल में बहुत तरह के कार्यक्रम होते हैं या फिर दशहरा का दुर्गा माँ की पूजा जिसमें लगने वाले  मेले का हमलोग साल भर प्रतिक्षा करते रहते हैं.
जगन्नाथ रथ यात्रा जैसे भव्य महोत्सव  और दशहरा का त्योहार जिसमें देश भर में जगह जगह मेले लगते हैं,इनका आधार  मूर्ति पूजा ही है .इन मेलों का ग्रामीण जीवन में बहुत महत्व है क्योंकि गाँव के लोगों की कई जरूरतें इन्हीं से पूरी होती है.ये गाँव की अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाये रखने के लिए आवश्यक होते हैं.इसके अलावे मेला देखने के बहाने लोग अपने सगे-सम्बन्धियों और परिचितों से मिल भी लेते हैं.
कुछ ना कुछ बुराइयाँ तो हर अच्छी चीजों के साथ जुडी ही होती है.धर्म या मूर्ति -पूजा के भी नकारात्मक पहलू हैं जिसे आज हिन्दू-विरोधी लोग प्रचारित करने में लगे हुए हैं पर जिस प्रकार भोजन हमें जीवन देती है और विषाक्त होने पर वो जीवन हर भी लेती है तो जरुरत भोजन को विषाक्त होने से बचाने की है न कि भोजन को त्यागने की,उसी प्रकार धर्म को त्यागने की नहीं बल्कि उसे दूषित होने से बचाकर जीवनोपयोगी बनाने की आवश्यकता है.

रविवार, 28 दिसंबर 2014

मूर्ति-पूजा क्यों?

हिन्दू-विरोधी प्रश्न करते हैं कि भगवान तो अनंत हैं जिसका न आदि है ना अंत तो फिर उसे एक निश्चित आकार में बांधकर मूर्ति-पूजा क्यों?
उत्तर है कि जिस प्रकार प्यास को बुझाने के लिए पूरे समुद्र को घर में नहीं लाया जाता है बल्कि एक घड़ा पानी ही पर्याप्त होता है,उसी प्रकार हमारे लिए तो भगवान् की एक छोटी से मूर्ति ही पर्याप्त है.
OMG,P.K जैसे फिल्मों के माध्यम से यह प्रचारित किया जा रहा है कि मूर्ति-पूजा गलत है,शिवलिंग पर दूध चढ़ाना गलत है आदि-आदि.
कुछ तथ्य मैं यहाँ पर रख रहा हूँ.आपलोग स्वंय निर्णय कीजिये कि हिन्दू-धर्म में प्रचलित इन रीति-रिवाजों की आलोचना कहाँ तक उचित है.
सबसे ज्यादा कटाक्ष किया जाता है शिवलिंग पर दूध चढाने को लेकर.इसके लिए मैं एक बहुत छोटे और गरीब गाँव का उदहारण दे रहा हूँ.झारखण्ड के गोड्डा जिले में एक गाँव है धमसाय.इस गाँव में एक शिव मंदिर है.इस गाँव से करीब ५०-६० किलोमीटर दूर तक क्षेत्र में जब किसी के घर में गाय या भैंस दूध देना शुरू करती है तो लोग पहला दूध इस मंदिर में भगवान् शिव को अर्पण करते है.बहुत दूर-दूर से लोगों के आने के कारण यहाँ काफी मात्रा में दूध चढ़ाया जाता है परन्तु यहाँ एक बूँद भी दूध बर्बाद नहीं होता. पीतल की बनी हुई एक नलिका से दिन भर का सारा दूध एक बड़े से पात्र में एकत्रित कर लिया जाता है और रात में खीर बनाकर पूरे गाँव में बाँट दिया है.
ये तो एक छोटे से गाँव में हो रहा है जहाँ मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है तो ज़रा सोचिये कि बड़े-बड़े मंदिरों में जहाँ ढेर सारा दूध चढ़ाया जाता है वहाँ अगर सारा दूध एकत्रित कर लिया जाय और उस दूध को प्रसाद के रूप में गरीबों को पिला दिया जाय या खोवा ,मिठाई आदि बनाकर प्रसाद के रूप में बाँट दिया जाय तो जो लोग आज हमारी बुराई कर रहे हैं वही हमारी प्रशंसा करेंगे.
आज आवश्यकता ये है कि हिन्दू रीति-रिवाजों में थोड़ा बदलाव करके उसे अच्छा बनाएं ना कि उसका विरोध करें.अब सोचिये अगर शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ सारा दूध इकठ्ठा कर लिया जाय तो कितने ही गरीबो का पेट भरा जा सकता है पर लोगों को दूध चढ़ाने से ही मना कर दिया जाएगा तो कितने लोग गरीबों को दूध पिलाने के लिए आयेंगे. ?
शिवलिंग पर दूध चढाने से या किसी मूर्ति के सामने फूल-मिठाई अर्पण करने से हम भगवान् के साथ एक जुड़ाव महसूस करते हैं.अगर भगवान् की मूर्ति हमारे सामने ना हो तो ऐसा लगता है जैसे भगवान् हमसे बहूत दूर हैं,वो इस दुनिया में नहीं बल्कि किसी और दुनिया में रहते हैं परन्तु मूर्ति के माध्यम से हम यह एहसास करते रहते हैं वो हर पल हमारे साथ हैं और ये एहसास कि भगवान् हमेशा हमारे साथ हैं बहुत बड़ी चीज है क्योंकि ये एहसास ही हमें कोई गलत काम करने से रोकती है और अच्छे काम करने के लिए प्रेरित करती है.ये एहसास ही है जो कठिन परिस्थितियों में भी हमें धैर्य धारण करने की शक्ति देती है,जब हम अपने आपको बिलकुल असमर्थ और असहाय महसूस करते हैं तो ये एहसास ही हमारा सहारा बनती है,जब हम खुद को शक्तिहीन और उर्जाहीन महसूस करने लगते हैं तो भगवान् के साथ ये जुडाव ही हमें ऊर्जा देती है क्योंकि सारी ऊर्जा का स्रोत तो ईश्वर ही हैं.जब हम प्रेम से भगवान् की मूर्ति को नहलाते-धुलाते हैं,उन्हें कपड़ा पहनाते हैं,उन्हें खाना खिलाते हैं तो हमारे दिल में प्रेम का भाव जगता है जो हरेक जीवों से प्रेम करने को प्रेरित करता है.
भगवान् के लिए अपने ह्रदय में प्रेम बढ़ाने के लिए ही हम मंदिर जाते हैं,भगवान् की कथा सुनते हैं,उनके नाम का संस्मरण करते हैं,भजन-कीर्त्तन करते हैं,उपवास करते हैं,कष्ट सहकर नंगे पाँव चलकर उनके मंदिर जाते हैं क्योंकि कष्ट सहने से हमारी सहनशक्ति बढ़ती है और भगवान् के लिए प्रेम भी.

कहने का तात्पर्य यही है कि भगवान् को फूल चढाने से,दूध पिलाने से या उनके लिए उपवास रखने से भगवान् को कोई फर्क पड़े या न पड़े पर हम पर जरुर फर्क पड़ता है क्योंकि इन सब रीति-रिवाजों को निभाने से हमारे अन्दर अच्छाईयाँ आती है...इसलिए आज आवश्यकता इन परम्पराओं को ख़त्म करने की नहीं है बल्कि इन परम्पराओं की महत्ता को लोगों को समझाने की है.पहले तो लोगों से सिर्फ धर्म के नाम पर ये सब परम्पराएं निभवा लिए जाते थे पर अब जरुरत है कि लोगों को तर्क के साथ समझाया जाय.जैसे घर में तुलसी का पौधा लगाना या सब्जी में हल्दी डालना पहले धर्म या परंपरा के नाम करवाया जाता था जबकि अब इन सब के लिए वैज्ञानिक कारण समझाना पड़ता है.

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

अपने किसी भी कुरीतियों के लिए भारतीयों को शर्म नहीं गर्व होनी चाहिए......

हमारी सभी कुरीतियाँ या कुप्रथाएँ हमारी महान सभ्यता-संस्कृति के प्रमाण हैं।
पिछले लेख में मैंने बताया था कि किस तरह से हमारी नारियों द्वारा प्रेम और भक्ति से प्रेरित होकर स्वेच्छा से किया जाने वाला कार्य को दुश्मनों ने रिवाज या प्रथा या परंपरा की तरह निभाने को विवश कर दिया हमारे समाज को।और फिर जब यह सती-कर्म प्रथा बनी तो इस प्रथा की आढ़ में कुछ गंदे लोगों ने हत्याएँ करनी शुरू कर दी और इसी हत्या वाले कर्म को सती-प्रथा का नाम देकर सती-कर्म को ही बदनाम कर दिया गया और इसके साथ ही बदनाम हो गई हमारी वो महान नारियां जिसने दुश्मनों के हाथों अपना शील-भंग होने से बचाने के लिए स्वंय को अग्नि के हवाले कर दिया था।
एक प्रश्न आपलोगों से-- क्या जबर्दस्ती किसी विधवा नारी को पति की जलती हुई चिता की अग्नि में ढकेल देने वाले कर्म को
सती-कर्म की संज्ञा दी जा सकती है जिस सती कर्म को नारियाँ अपनी इज्जत बचाने के लिए किया करती थी???
अगर नहीं तो फिर क्यों अपमानित महसूस करते हैं हम भारतीय अपने आपको और क्यों मूर्ख समझा जाता है हमारे पूर्वजों को???
अब आगे इस लेख में मैं उन सभी कुरीतियों की चर्चा करूंगा जिसके कारण आज तक भारतीयों को अपमानित किया जाता है।सती-प्रथा के बाद सबसे ज्यादा जाति-प्रथा या छुआछूत के लिए भारतीयों को अपमानित किया जाता है।बेशक वर्त्तमान में जो जातिवाद या छूआछूत का रूप हमें दिखलाई पड़ता है वो तो घृणित है ही पर हमारे पूर्वज इसके लिए निंदनीय नहीं हैं।इसके लिए भी विदेशी कारक ही उत्तरदायी हैं...और भले ही इसके लिए खुद हम भी बहुत हद तक उत्तरदायी हैं पर इस बात के लिए भी हमें शर्म करने की जरूरत नहीं बल्कि गर्व करना चाहिए हमें क्योंकि घोड़े पर बैठने वाला ही गिरता है पैदल चलने वाला नहीं।
अब आपही लोग बताइए कि अगर घोड़े की सवारी करते-करते एक दिन किसी कारणवश(चाहे गलती किसी की भी रही हो) आप घोड़े से गिरकर घायल हो जाते हैं या मान लीजिए आपका पैर टूट जाता है तो पैदल चलने वाले और गधे की सवारी करने वाले लोग जो आपके घोड़े की सवारी से जला करते थे उन्हें तो बहाना मिल जाएगा आपको बुरा-भला कहने का तो वो तो कहेंगे ही कि-
""और चढ़ो घोड़े पर... पैर-हाथ टूटा ना!""
तो वोलोग जब आपकी हंसी उड़ानी शुरू कर देंगे तो क्या आप अपने आप को अपमानित महसूस करेंगे??
या आपको पश्चाताप होने लगेगा कि--"बेकार ही घोड़े से यात्रा किया करते थे,गधे पर ही बैठते तो ठीक रहता" ???
मुझे पता है कि आपका उत्तर नहीं में ही होगा।आप ऐसी स्थिति में भी उनलोगों के बीच अपने टूटे हुए हाथ-पैर के लिए शर्म नहीं
करेंगे क्योंकि ये आपकी घोड़े के सवारी की निशानी है यानि आपके शान की पहचान है।
आप घोड़े की सवारी छोडकर गधे की सवारी शुरू नहीं कर देंगे बल्कि हाथ-पैर ठीक होने की प्रतीक्षा करेंगे और फिर उसी शान से घोड़े को दौड़ाना शुरू कर देंगे।
है ना??
तो फिर आज ऐसा हाल क्यों है आपका??क्यों आज एक गधे की सवारी करने वाले के मज़ाक उड़ा देने के कारण आपने शर्म के कारण घोड़े की सवारी छोड दी और गधे पर जाकर बैठ गए??
अरे हम तो वो भारतीय हैं तो तन से ही नहीं बल्कि मन से भी शुद्धता का पालन करते हैं।हमारा देश तो वो देश है जहां भिखारी भी गंदे हाथों से भीख नहीं लेता।भारत तो अति शुद्धता-पवित्रता वाला देश है जहां पड़ोस के भी किसी घर में कोई अशुभ कार्य होने पर हम अपने घरों को यज्ञ-हवन कराकर शुद्ध कर लेते हैं।जब हम नहा-धोकर अपने तन को पवित्र कर पूजा करने की तैयारी करते हैं तो बिना स्नान किए हुए अपने परिवार के लोगों को भी अपने से स्पर्श होने तक नहीं देते हैं हम कि कहीं हम अपवित्र ना हो जाएँ जो गलत भी नहीं है।
अब स्वाभाविक सी बात है कि जब हम इतना ज्यादा शुद्धता पर ध्यान देंगे तो कहीं ना कहीं हमसे चूक होगी ही।हम जितनी ज्यादा ऊंचाई पर रहेंगे हमारे गिरने की संभावना उतनी ही ज्यादा रहेगी।इसलिए शुद्धता बरतते-बरतते भारतीय समाज में अस्पृश्यता जैसी बुराई ने कब घर कर लिया और ये अस्पृश्यता कब नफरत में बदल गई ये उसे पता भी नहीं चल पाया।पर भारतीय समाज अस्पृश्यता तो अस्थाई रूप से अशुद्ध लोगों से बरतता था चाहे वो उसका अपना पिता या पुत्र ही क्यों ना हो इसे जातिवाद के रूप में विदेशियों ने ज्यादा घृणित बना दिया।
एक उदाहरण देखिए--आज डोम-हाड़ी जिसे शूद्र कहा जाता है जो सूअर पालने वाली एक घृणित जाति के रूप में जानी जाती है जिससे खुद हिन्दू ही घृणा करते हैं जबकि इस जाति का हिंदुओं पर एक बहुत बड़ा ऋण है।जब मुसलमान हिंदुओं पर मुसलमान बनने के लिए असहनीय अत्याचार कर रहे थे,हिन्दू नारियों का शील-भंग कर रहे थे और पुरुषों का अंग-भंग कर रहे थे तब कुछ हिंदुओं ने इनसे बचने के लिए एक तरीका निकाला और सूअर के साथ रहना शुरू कर दिया ताकि मुसलमानों के अत्याचार से बच सके।सूअर के साथ रहते हुए ये गंदे कामों के आदि हो गए और एक जाति के रूप में घृणित हो गए।
जहां तक जाति-प्रथा की बात है तो यह प्राचीन समाज में प्रचलित नहीं था।पहले व्यक्ति की योग्यता तथा उसका गुण ही व्यक्ति का परिचय होता था उसकी जाति नहीं।इसके प्रमाण के लिए आप किसी भी स्वयंबर को देख लीजिए।माँ सीता के स्वयंबर में क्षत्रिय भी आते हैं,ब्राह्मण भी आते हैं और राक्षस जाति का रावण भी।द्रोपदी के स्वयंबर में भी क्षत्रिय,ब्राह्मण के साथ सूत-पूत कर्ण भी आता है।कर्ण हमेशा एक सारथी का पुत्र होने के लिए अपमानित होता है किसी जाति के लिए नहीं।खुद पांडवों के वंशज शांतनु एक मछुआरे की बेटी से शादी करते हैं।
पहले व्यक्ति की पहचान सिर्फ उसके कर्म से होती थी फिर 300ई॰पूर्व के आसपास चाणक्य के ग्रंथ में वर्ण-व्यवस्था दिखाई पड़ती है,पर यह वर्ण-व्यवस्था इस समाज को चलाने के लिए बनाया गया था।फिर यह वंशानुगत होकर वर्ण व्यवस्था से जाति-व्यवस्था में परिवर्त्तित हो गया।ये भी होना आवश्यक था ताकि गुणों का क्रमशः विकास होता जाय,कभी खत्म ना हो।जैसे लोहार ने अपने गुण अपने पुत्र को दिए,बढ़ई ने अपनी कला अपने पुत्र को,ब्राह्मण ने अपना ज्ञान अपने पुत्र को।पर पहले कोई छोटा-बड़ा नहीं होता था और किसी में कोई भेदभाव नहीं था।सभी को समान अवसर उपलब्ध थे चाहे वो शिक्षा-प्राप्ति का हो या कोई अन्य अधिकार।
फिर लगातार विदेशी आक्रमणों के कारण भारत के शिक्षा-केंद्र नष्ट होने लगे।लोग ज्यादा संख्या में अपने सभ्यता-संस्कृति से कटने लगे,और अनपढ़ होने के कारण मूर्ख रहने लगे।फिर इसी मूर्खता के कारण हमारे सभी महान सभ्यता-संस्कृति प्रदूषित होने लगी क्योंकि लोगों ने अर्थ का अनर्थ करना शुरू कर दिया।
इस प्रकार कुछ तो हमारी गलती से और कुछ विदेशी आक्रमणों के कारण हमारी विपरीत परिस्थिति के कारण हमारी हरेक अच्छी चीजें बुरी बन गई।हमारी सभी महान रीतियाँ कुरीतियाँ बनती चली गई।
आप इन कुरीतियों के कारण तो शर्मिंदगी महसूस करते हैं पर क्या उस महान रीति पर गर्व करते हैं जो कुरीति बनने से पहले हमारी महान सभ्यता-संस्कृति का आईना थी??
हमें घोड़े से गिराकर घायल कर देने वाला आज अट्टाहास कर रहा है और हम अपना मुंह छुपाते फिर रहे हैं......क्या ये सही है??
जिस व्यक्ति का अपना स्वाभिमान खत्म हो जाता है वो दास बन जाता है,शर्मिंदगी में जीने वाला व्यक्ति कभी अपना विकास नहीं कर सकता।विदेशियों के विकास करते रहने रहने का यही कारण है कि बचपन से ही वो गर्व महसूस करते हैं,उन्हें अपने पूर्वजों पर गर्व होता है।उनके मस्तिष्क में यह बात बैठी हुई होती है कि जब उनके पूर्वज इतने महान कार्य कर सकते थे तो वो भी महान कार्य कर सकते हैं यही मानसिकता उन्हें मानसिक बल देता है जो उनसे कोई भी काम करा देता है।इसके विपरीत हम भारतीय हमेशा यह सोचते रहते हैं कि हमारे पूर्वज तो मूर्ख थे किसी काम के नहीं थे इसलिए हम भारतीय भी किसी काम के लायक नहीं तो बताइए कैसे विकास हो पाएगा हमारा।शारीरिक रूप से संसार का सबसे दूबल व्यक्ति भी सिर्फ आत्मविश्वास अर्थात मानसिक बल पर पूरे विश्व को जीत सकता है।
इसलिए जब आप अपने पूर्वजों को घोड़े से गिरे हुए घायल व्यक्ति के रूप में देखते हैं तो शर्म मत करिए गर्व करिए कि आपके पूर्वज गिरकर घायल होने से पहले उस युग में भी तीव्र वेग से घोडा दौड़ाया करते थे जिस युग में विश्व के लोग गिर जाने के डर से गधे पर भी बैठने से डरा करते थे,जिस युग को पश्चिम वाले अंधकार युग कहते हैं।अपने महान पूर्वजों को याद करके हमें तो फिर से निडर होकर घोड़े पर बैठना है और घोड़े को ज़ोर का एड़ लगाकर इतने वेग से पूरे विश्व में घोडा दौड़ाना है जिसके टापों की आवाज से पूरा विश्व भयाक्रांत हो जाए,इससे उड़ने वाले धूलों के गुबार से पूरा विश्व ढक जाय,सिर्फ भारत ही नजर आए इस धरती के मानचित्र पर।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

सती-प्रथा जैसी कुरीतियाँ हम भारतियों के लिए शर्म की नहीं बल्कि गर्व की बात है.....

भारतियों की सती-प्रथा,जाति-प्रथा,मूर्ति-पूजा,छूआछूत,ज्योतिष,तंत्र-मंत्र,रीति-रिवाज आदि परम्पराएँ; जिसे कुरीति,मूर्खता या अंधविश्वास बताकर भारतीयों को अपमानित किया जाता है और भारतीय भी शर्मसार होते रहते हैं इन बातों के लिए।पर मैं अपने देशवासियों को यह बताना चाहूँगा कि ये सारी परम्पराएँ हम भारतीयों के लिए कोई शर्म की बात नहीं बल्कि बहुत ही गर्व करने की बात है...........

अरे हमने तो अमृत रखे थे अपने पास,इसे जहर तो आपने बना दिया और अब आप ही हमपर जहर रखने का इल्जाम लगाकर हमें अपमानित कर रहे हैं...!

हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे जो इन सारी चीजों के साथ चलते थे बल्कि मूर्ख वो हैं जो इसे समझ नहीं पाए।उदाहरण के लिए देखिए--सती-प्रथा को भारतीयों की सबसे घृणित परंपरा माना जाता है पर मेरे नजर में यह एक महान,आदरणीय और पूज्यनीय परंपरा है।विदेशियों की इतनी औकात ना तो कभी थी और ना ही अब है कि वो इस महान कार्य(पत्नी का सती होना) को समझ सके।

जरा विचार करिए कि जीवन-बीमा(life insurance policy) जो अभी इतना लोकप्रिय है जिसे लोग खुशी से अपनाते हैं पर भविष्य में यह भी संभव है कि जीवन-बीमा कराना एक अपराध घोषित कर दिया जाय।हो सकता है कि लोग अपनी पत्नी,अपने माँ-पिता,भाई का पैसे के लालच में जीवन-बीमा कराकर उनकी हत्या करना शुरू कर दे।यह दुष्कर्म अगर बहुत ज्यादा होना शुरू हो जाएगा तो कानून बनाकर इसे दण्डणीय अपराध घोषित करना पड़ जाएगा तो ऐसी स्थिति में बताइए कि हमारे जो पूर्वज जीवन-बीमा कराते थे वो पापी या मूर्ख थे या जीवन-बीमा गलत चीज थी या इस जीवन-सुरक्षा पॉलिसी को जीवन-हरण पॉलिसी में बदलने वाले लोग?

बिलकुल यही स्थिति सती-प्रथा के साथ भी हुई।सती-प्रथा की शुरुआत महाभारत काल से मानी जाती है तो ये वो समय था जब पत्नी अपने पति के प्रति पूरी तरह समर्पित होती थी।पत्नी का पति के प्रति इतना स्नेह,प्रेम और समर्पण होता था कि वो अपना पूरा जीवन,अपना सारा सुख-दुःख सब कुछ पति को ही समझती थी।जिस प्रकार एक भक्त अपने भगवान को अपना सब कुछ सौंप देता है,अपने इष्ट देव के प्रेम(अर्थात भक्ति) में इतना खो जाता है कि उसे अपने भगवान के अलावा कुछ और दिखाई ही नहीं देता है,उसके भगवान की खुशी से ही उसकी खुशी होती है और दुःख से उसका दुःख।उसी प्रकार पत्नी भी अपने पति से वैसा ही प्रेम करती थी।जहां प्रेम होता है वहाँ समर्पण होता है,वहाँ सम्मान होता है।ये पत्नी का सम्मान और समर्पण था अपने पति के लिए जो वह पति को परमेश्वर मानती थी और उसके लिए अनेक कष्ट सहकर भी,कठिन-से-कठिन व्रत रखकर भी पति के सुखी जीवन की कामना करती थी।ये अलग बात है कि पुरुषों ने अपनी पत्नियों के इस महान त्याग और प्रेम को उसकी कमजोरी तथा मजबूरी समझा और उसका सम्मान करने की बजाय हर जगह उसका अपमान किया।

इस त्याग के कुछ उदाहरण देखिए-सीता का त्याग तो सब जानते ही हैं,उस महान नारी गांधारी के त्याग के बारे में सोचिए।गांधारी ने अपनी खुशी से धृतराष्ट्र से शादी की थी ना कि किसी के दवाब में और अपनी खुशी से ही जीवन भर अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखी थी।गांधारी का कहना था कि जब उसके पति ही देखने के सुख से वंचित हैं तो वो देखने का सुख कैसे ले सकती है इसलिए उसने भी ना देखने का व्रत लिया और अपने आँखों पर पट्टी बाँध ली।

तो सोचिए कि जो पत्नी अपने पति के लिए इतना कुछ त्याग कर सकती है वो अगर अपने पति की मृत्यु पर अपने भी प्राण त्याग दे तो क्या यह बड़ी बात है??नहीं ना! यही कारण था कि पहले पत्नी ऐसा(सती-कर्म) किया करती थी पर ये उसकी अपनी खुशी थी किसी का दवाब नहीं।जिस पत्नी को अपने पति की मृत्यु के बाद अपना जीवन नीरस और व्यर्थ लगता था वो ऐसा करती थी।इसलिए महाभारत में या शिव-पुराण में कुछ उदाहरण इसके देखने को मिल जाते हैं पर जब विदेशियों का भारत पर आक्रमण काफी बढ़ गया और खासकर हूणों और मुसलमानों के आक्रमण के बाद से यह प्रथा बृहद पैमाने पर दिखाई देने लगी।चूंकि मुसलमानों का युद्ध का प्रमुख हथियार बलात्कार होता था और उनका प्रमुख हमला स्त्रियों पर ही होता था इसलिए अपने पति की मृत्यु के बाद रानियों के पास और कोई उपाय नहीं बचता था सिवाय सती होने के।भारतीय नारियाँ अपने शरीर को

पर-पुरुष के हवाले करने की तुलना में अग्नि के हवाले कर दिया करती थी जो कि एक पूज्यनीय कार्य ही कहा जाएगा।रानी पद्मावती और उनके साथ हजारों राजपूत नारियों का जौहर((सती की तरह ही पति की मृत्यु के पूर्व ही किया जाने वाला कर्म)) कौन भूल सकता है जिन्होंने अपने पतियों को मुगलों के विरुद्ध युद्ध में भेज दिया और एक विशाल अग्नि-कुण्ड का निर्माण कराकर स्वंय को अग्नि को समर्पित कर दिया क्योंकि मुगलों की जीत निश्चित थी।बृहद पैमाने पर इस तरह के कर्म संपादित होने के कारण इसका राजमहल के दायरे से बाहर निकलकर आम जनों तक फैल जाना स्वाभाविक ही था। बाहर आकर यह कभी-काल होने वाला पुण्य-कर्म प्रथा बन गई फिर कुछ मूर्ख लोगों के द्वारा इसका गलत अर्थ लगाने के कारण तथा कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करना शुरू कर देने के कारण यह महान कर्म विकृत होता चला गया[0[अधिकांशतः यही देखा गया कि सती वही विधवा महिलाएं हुई जो धनवान थी तथा निःसंतान थी,यानि धन के लोभ में उसके देवर या परिवार के अन्य लोग उसे सती होने के लिए विवश कर देते थे]0]....।

और फिर उसके बाद तो अंग्रेजों को भी मौका मिल गया हमें नीचा दिखाने का।हमें बस विकृत अपराधपूर्ण सती-प्रथा के बारे में ही बताकर अपमानित किया गया और सच्चाई को छुपाकर रखा गया। हमारा अमृत जब जहर बना दिया गया तब यह प्रचारित करना शुरू कर दिया गया कि हम जहर रखने वाले जहरीले लोग हैं लेकिन जब हमारे पास अमृत था तो उसे तो पहचान नहीं पाए और हम अमृत रखने वाले देवता थे यह तो कभी प्रचारित नहीं किया.......

स्वाभाविक सी बात है कि अगर हमारे अमृत के बारे में बताया जाएगा तो फिर उसे जहर बनाने वाले के बारे में भी बताना पड़ जाएगा और तब हमें अपमानित करने वाले लोग खुद अपमानित हो जाएंगे इसलिए हमें बस कुरीति के बारे में बताया जाता है लेकिन हमारी रीति कुरीति में कैसे बदली और इसे बदलने वाले कौन थे ये नहीं बताया जाता है।

मैं सती-प्रथा का पक्षधर नहीं हूँ और ना ही चाहता हूँ कि यह दुबारा फिर शुरू हो {0{क्योंकि इस महान कर्म की आढ़ में अनेक पाप होने लगते हैं जिस प्रकार आज साधु-सन्यासियों के आढ़ में चोर-डाकू पुलिस की आँख में धूल झोंक रहे हैं।हो सकता है भविष्य में सन्यासी बनने जैसा महान त्यागी कर्म भी एक घृणित कर्म बनकर रह जाय}0} लेकिन मुझे कोई शर्म महसूस नहीं होता,बल्कि गर्व महसूस होता है कि हमारे देश में ऐसी महान नारी होती थी जो ऐसे महान कार्य भी करने की हिम्मत रखती थी।

एक बात और कि कोई भी भारतीय-ग्रंथ ना तो स्त्री को सती होने के प्रेरित करती है और ना ही दबाव डालती है।

इसी तरह की बात हरेक कुरीतियों के साथ भी है।चूंकि सबसे ज्यादा घृणित इसी कर्म को माना जाता है जो कि कभी एक महान कर्म हुआ करती थी इसलिए इसके बारे में विस्तार से लिखा मैंने।अन्य परम्पराओं जैसे जाति-प्रथा और छुआछूत आदि के बारे में भी लिखुंगा कि कैसे ये महान परंपराएँ बाद में विकृत होकर घृणित हो गई।

क्रमशः............

बुधवार, 12 जनवरी 2011

अंग्रेजों के लिए जो है उनकी लाचारी और विवशता वही हमारे लिए है शान-ओ-शोकतता

ये बात हास्यास्पद है पर अत्यंत दुःखद कि जो चीज अंग्रेजों की लाचारी है उसे हम अपनी शान बना लेते हैं।इसके उदाहरण तो अनगिनत हैं पर मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूँ जो मेरी नजर में है।

उदाहरण से पहले मेरी एक बहुत छोटी सी कहानी-एक बार मेरा एक दोस्त बेर के पेड़ पर बेर के फल तोड़ रहा था।किसी कारणवश वो असंतुलित हो गया और नाचे गिर पड़ा।वो गिरा तो बहुत ऊंचाई से था पर उसके मित्र समूह में कुछ उसके विरोधी भी थे जो उसके गिरने पर हंसने लगे।तभी मेरे उस मित्र ने कहा कि हंस क्यों रहे हो सालों मैं पेड़ से गिरा थोड़े ही हूँ मैंने तो छलांग लगाई है वहाँ से।ह...हा...जब भी ये बात सोचता हूँ तो हंसी आ जाती है क्योंकि सच में उन विरोधियों का मुंह बंद कर दिया था उसने।

यही हाल मैं अपने भारतीयों का देखता हूँ पर यहाँ मुझे हंसी नहीं आती दुःख होता है।क्योंकि यहाँ स्थिति उल्टी है।विरोधी की जगह मेरे देशवासी हैं और मेरे चालाक मित्र की जगह मेरे दुश्मन।

आज युवा जिसे फैशन के नाम पर अपनाकर अपने आपको सभ्य या फ्रैंक(खुला विचार वाला) या बड़े बन जाने की तसल्ली देते हैं वो वस्तुतः अंग्रेजों की लाचारी है।

लगातार दो विश्व-युद्ध झेलने के बाद अंग्रेज़(लगभग सभी पश्चिमी देश) लोग काफी निराशा और दुःख में जी रहे थे।धन और जन की अपार क्षति हो गई थी।ऐसे में लोग खुशी को तलाश रहे थे।कहीं से भी थोड़ी से खुशी मिल जाती तो टूट पड़ते थे वो उसपर।इंसान के खुशी का सबसे बड़ा स्रोत है सेक्स।लोगों ने सेक्स में खुशी ढूंढनी शुरू कर दी।जिसे जहां जो मिल गया उसीके साथ लोगों ने सेक्स करना शुरू कर दिया।परिवार और मानव-समाज के सारे नियम टूट चुके थे।युद्ध में काफी संख्या में सैनिकों के मारे जाने से उनकी विधवाओं ने इस चीज को काफी बढ़ावा दे दिया।सरकार ने भी हालात को देखते हुए सेक्स को खुला कर दिया नहीं तो पहले वहाँ भी सेक्स खुला नहीं था।

अब देखिए इसी बदचलनी और बेशर्मी को नाम मिला खुलापन का और भारत में लोग इसे शान समझकर अपनाने लगे।क्यों भाई ??पहले जो हमारी माता सीता जैसी औरतें साड़ी पहनती थी या शर्म का आभूषण धारण करती थी क्या वो इसलिए कि उनका दिमाग गंदा था????और अब जो खुलेपन के नाम पर लड़कियां अपना देह खोलने लगी और लाज-शर्म को भूल गई तो इसलिए कि इनका दिमाग शुद्ध है और इनके विचार पवित्र हैं????

बराबरी की बात तभी की जाती है जब छोटे और बड़े की बात आती है।भारत की महान संस्कृति में नारी पुरुष के बराबर थी या इससे ज्यादा ही महान थी लेकिन कम नहीं थी कभी।इसलिए यहाँ कभी बराबरी की बात नहीं की गई।परंतु विदेशों में लड़कियों को लड़कों से कम महत्व दिया जाता था इस कारण लड़कियों ने लड़के की बराबरी करने के लिए अपना पारंपरिक लड़कियों वाला पोशाक उतार फेंका और लड़कों के पोशाक जींस-पैंट को पहनकर अपने आपको लड़के के बराबर बन जाने का दिलासा देने लगी।हरेक काम लड़कों की तरह करने लगी जैसे नौकरी करना,सिगरेट पीना,दारू पीना आदि सब काम।क्या लड़कों की बराबरी करने के लिए लड़कियों को लड़कों वाले ही काम करना जरूरी है???जो भी हो भारत की लड़कियों ने भी इसे अपना आदर्श बनाया और जींस-गंजी,फूलपैंट -शर्ट(ये कम था तो ऊपर से टाई भी)पहनकर अपने आपको लड़का समझने लगी।इससे भी इनकी हीन भावना नहीं मिटी तो दारू-सिगरेट तथा अन्य खतरनाक नशीले पदार्थों का सेवन करने लगी ये।मैं अपनी कक्षा के ही ऐसी कई लड़कियों को जानता हूँ जिसे मैं काफी सीधी समझता था पर ऐसे-ऐसे चीज प्रयोग करती है जिसका नाम भी मैंने पहले कभी नहीं सुना था और ना ही बाद में वो नाम याद ही रहा मुझे।

जो इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि विदेशों में लोग नारियों को पुरुषों के बराबर समझते हैं उन्हें मैं बता दूँ कि वहाँ स्थिति भारत से भी बुरी है।इसका सबसे बड़ा उदाहरण है वहाँ लड़कियों को इंसान ना समझकर उपभोग की वस्तु समझना।जो देश "Miss World" और मिस यूनिवर्स जैसी प्रतियोगिता करवाता हो उस देश की मानसिकता आसानी से समझी जा सकता है कि क्या औकात है वहाँ लड़कियों की।इस शर्मनाक और घृणित प्रतियोगिता को भी खुलापान और बड़ा सोच बताया जाता है।

पर हाय रे मेरे देश का दुर्भाग्य कि मेरे देश के पिताओं ने भी अपनी बेटियों को इन प्रतियोगिताओं में भेजना अपना शान समझ लिया।और लड़कियां तो बचपन से ही विश्व-सुंदरियों को अपना आदर्श बना बैठती है॥वैसे इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं वे तो अनजान होते हैं पर माता-पिता को तो समझाना चाहिए ना और बहुत से माता-पिता भी नहीं जानते हैं इन प्रतियोगिताओं की सच्चाई को पर हमारे सरकार को तो समझाना चाहिए ना!

चलिए लड़कियों की बात छोड़िए।ये तो बेचारी हैं दया के पात्र हैं।लड़कों की बात करते हैं। जिन लोगों का पेट बाहर की ओर निकला होता है उस बेचारे की मजबूरी होती है कि उन्हे जिंस कमर के काफी नीचे से पहनना पड़ता है पर जो स्वस्थ लड़के हैं उन्हें इस बात में क्या फैशन दिखा कि जिंस को नीचे सरकाने की होड़ सी लग गई।आजकल युवाओं की सोच ऐसी हो गई है कि भले ही वो कितने भी गंदे दिखें पर जिंस,पैंट और स्कर्ट को यथासंभव नीचे तक खिसका ही पहनेंगे।क्यों?फैशन है।या फिर ये दिखाना है कि

"Jockey"का जाँघिया पहना है या "Macroman" का?पर जाँघिया दिखाने के लिए भी जींस को थोड़ा सा नीचे करने से काम चल जाएगा पर ये जींस को नीचे से नीचे पहनने की प्रतियोगिता किस बात की?

विदेशी लोगों में सुंदर दिखने का जुनून सवार है जिसकारण लड़के अपना नाक,कान,भौंहे,गाल,होंठ,छाती और पता नहीं

क्या-क्या;सुना है लड़कियां तो अपना नाभी और गुप्तांग में भी बाली पहनती है।हम भारतीयों को इसमें क्या दिखा कि हमने भी इस प्रकृति-प्रदत्त सुंदर शरीर को जहां तहां कील-ठोककर बिगाड़ना शुरू कर दिया।

विदेशियों को भगवान ने काला रंग का बाल का सौभाग्य नहीं दिया है।उनके बाल भूरे या सफेद होते हैं पर हम भारतीयों को क्या फैशन दिखा इसमें कि अपने काले सुंदर बाल को भूरे,सफेद,लाल,पीला रंग से रंगने में खुशी मिलने लगी!!

वहाँ की जलवायु ठंडी है तो वो गरम चाय या काफी पीते हैं पर हम गर्मी में भी क्यों दस-बारह कप डकार जाते हैं।

उनके पास पैसा बहुत ज्यादा है तो उस पैसे को खत्म करने के लिए अनाज और फल को सड़ाकर शराब बनाकर पीते हैं और पैसे को खत्म करते हैं।पर हम क्यों???

कितनी हंसी की बात है कि देशी शराब से तो घृणा करते हैं हम भारतीय पर विदेशी शराब के नाम पर बीयर,वोदका,रम,ह्वीस्की आदि पीना अपनी शान समझते हैं।

भारतीय खाना कितना भी सस्ता,स्वादिष्ट और स्वास्थ्यकर हो पर स्वाद तो हमें स्वास्थ्य के लिए हानिकर पिज्जा और बर्गर में ही मिलता है।इसलिए कि पिज्जा मंहगा है और विदेशी भी तो इसे खाकर हमें विदेशियों जैसे आधुनिक,सभ्य और अमीर होने का सुखद एहसास होता है।साथ-ही साथ अगर हमारे किसी पड़ोसी या दोस्त को पता चलता है कि हम पिज्जा खाते हैं तो उस पर हमारा प्रभाव भी जम जाता है।

योग भले ही कितना भी लाभदायक हो पर खुशी तो हमें शरीर को बर्बाद करने वाले जिम को करके ही मिलती है।

भारतीय संगीत कितना भी मधुर हो पर रस तो हमें बेतुके और बेसुरे विदेशी संगीत में ही मिलता है।भारतीय संगीत कितना भी शांति और सुकून देने वाला क्यों ना हो शांति तो हमें शोर-शराबे वाले विदेशी धुनों को सुनकर ही मिलती है।

अन्य फ्लेवर कितना भी स्वादिष्ट क्यों ना हो स्वाद तो हमें चॉक्लेट फ्लेवर में ही मिलता है।चॉक्लेट होरलिक्स,दूध,बिस्कुट आदि-आदि।

मुझे याद है जब पहली बार बड़े शौक से मैंने किट-कैट का चॉक्लेट खरीदा था।मंहगा था इसलिए बहुत खुशी से उसे खाना शुरू किया।पर पहले कौर से ही ऐसा लगा कि साला ई बच्चों का चॉकलेट है या दवाई है।याद नहीं मुझे मैं वो पूरा खा भी पाया था या नहीं।पर आज जब लोगों में इसके लिए इतना दीवानापन देखता हूँ तो यही सोचता हूँ कि विदेश के नाम पर कुछ भी पसंद कर लेंगे हम भारतीय।50 पैसे का दूध-मक्खन के स्वाद वाला "maha-Lacto" कितना भी स्वादिष्ट क्यों ना हो और kiT-KaT कितना तीता ही क्यों ना हो पर खाएँगे तो किट-कैट ही।क्योंकि ये मंहगा है और साथ ही साथ विदेशी भी।

जिस टाई को विदेशी अपनी नाक पोछने के लिए बांधते थे उस टाई को बांधना हमने अपनी शान समझ लिया।विदेशों में तो सर्दी है लोगों की नाक बहती रहती है पर हमारे यहाँ तो गर्मी है.....!

विदेशी हमारी तरह रोटी-सब्जी या दाल-भात नहीं खाते हैं तो वे हाथ के बजाय कांटे-छूरी या चम्मच का प्रयोग करते हैं पर हम क्यों??चम्मच और कटोरी का मेल है।चूंकि कटोरी में खीर-सेवई जैसे तरल पदार्थ खाए जाते हैं तो चम्मच जरूरी है पर रोटी और सब्जी में चम्मच क्यों?हमारा हाल तो ऐसा हो गया है कि हम एक हाथ से रोटी खा भी नहीं पाते।रोटी तोड़ने के लिए हमें दोनों हाथ लगाने पड़ते हैं।चूंकि दाएँ हाथ में तो चम्मच होता है इसलिए बाएँ हाथ से ही रोटी का निवाला मुंह में डालते जाते है।चूंकि हाथ तो ज्यादा गंदा होता नहीं है इसलिए खाने के बाद हाथ धोने की बजाय बस हाथ झाड़कर काम चला लेते हैं हम।जो चम्मच की बजाय हाथ से खाना खाते हैं वो हमसे ज्यादा शुद्धता बरतते हैं क्योंकि खाने के बाद कम-से-कम वो हाथ तो धोते हैं पर फिर भी अगर हम अपने सामने किसी को हाथ से खाते देख लेते हैं तो हमें घिन आने लगती है कि कितना असभ्य और घिनौना है ये व्यक्ति जो चम्मच की बजाय हाथ गंदा कर रहा है।जो चीज हम मुंह में डालते हैं वही चीज किसी के हाथ में सट जाती है तो हमें घिन आने लगती है।आखिर हम सभ्य,आधुनिक और अंग्रेज़ के वफादार जो हैं और ये तो हाथ से खाने वाले साले असभ्य और गरीब भारतीय!

हम भले ही हाथ से दाल-भात खाने में भी असमर्थ हों पर हम फिर भी सभ्य है।आखिर अंग्रेज़ होने का मुहर जो लग गया हमपर!

अंग्रेजों को पानी की कमी होगी या ठण्ड के कारण हाथ भिंगोना नहीं चाहते होंगे तो वे पानी की बजाय कागज का प्रयोग करते हैं पर हमें तो ईश्वर ने गर्मी और प्रचुर पानी दिया है फिर हम क्यों इतने गंदे बन रहे हैं।खाने के बाद तो हाथ धोने की बात छोड़िए क्यों हम शौच के समय भी पानी के बजाय कागज से पोछने जैसा अत्यंत घिनौना काम करते हैं।??

अंग्रेज़ तो चाहेंगे ही कि हम भी उनकी तरह बन जाएँ।आज जितने भी बड़े-बड़े विदेशी पिज्जा-हट,मैक-डोनाल्ड,कैफे-टाइम जैसे food-corner हैं जिसने उस दूकान में करोड़ों की पूंजी लगाई है जहां मंहगे-मंहगे कुर्सी-टेबल,सोफे आदि तो होते हैं पर हाथ धोने के लिए एक बेसिन तक नहीं होता।किस बात की ओर संकेत करता है ये।?

परिस्थिति ऐसी हो चुकी है कि कल को अगर किसी बीमारी से सारे अंग्रेज़ टकले होने लगें तो भारतीय भी फैशन के नाम पर अपने-अपने सर के बाल मूडवाना शुरू कर देंगे।किसी कारण वश अगर वे लोग अपाहिज हो जाएँ और लाठी लेकर चलना उनकी मजबूरी हो जाय तो हम भी लाठी लेकर चलना अपनी शान समझने लगेंगे।अगर किसी दिन उन्हें कुत्ते का मूत्र भा जाए और वे पीना शुरू कर दे तो हमारे यहाँ भी कुत्ते का मूत मंहगी बोतलों में बिकना शुरू हो जाएगा और शान से हम कुतर-मूत्र की पार्टी भी मनाने लगेंगे॥

क्षमा चाहता हूँ एक और कड़वा सत्य कहने के लिए पर परिस्थिति ऐसी ही है कि कल को अगर अंग्रेजों को कुतिया भा गई और उसके साथ वो शादी करने लगे तो हमारे यहाँ भी कुतियों के साथ शादी करने की प्रथा शुरू हो जाएगी जिस प्रकार विदेशों में गे और लेस्बियन का चलन बढ़ा तो यहाँ भी लोगों ने शुरू कर दिया।वहाँ तो लड़कियां लड़का बन चुकी है तो लड़के की रुचि लड़कियों से हट गई पर भारत में ऐसा क्यों??

क्या अंग्रेज़ बन जाना ही आधुनिक और सभ्य बनना होता है??मैं ये नहीं कहता कि विदेशी से नफरत करो।जो चीज उनकी अच्छी है वो जरूर अपनाओ पर बिना सोचे-समझे उनकी बुरी चीजें तो मत अपनाओ और अपनी अच्छी चीजों पर उनके बुरे चीजों को ज्यादा महत्व तो ना दो।

भारतियों के लिए एक कहावत है कि हमेशा हमें दूसरों की बीबी पसंद आती है पर इसका मतलब ये तो नहीं ना कि हमारी बीबी अगर मेनका है और दूसरे की शूर्पनखा फिर भी हमें अपनी मेनका के बजाय शूर्पनखा ही पसंद आए।आखिर किसी चीज की हद होती है यार।विदेशी चीजें आकर्षित कर सकती हैं पर इसका मतलब ये तो नहीं ना कि उनके मल-मूत्र भी हम पसंद करने लगें।

आज विवेकानंद जी का जन्मदिन का शुभदिन है।युवाओं से मैं यही कहूँगा कि याद कीजिए उनके आदर्शों को।प्रेरणा लीजिए उनसे और गर्व करिए अपने भारतीय होने पर।हम भारतीय वो हैं जिसने पूरी दुनिया को पैंट पहनना और शुशु करना सिखाया है।हम भारतीय तो विश्वगुरु थे चेले-चटिए नहीं।हम चक्रव्रती सम्राट थे किसी के दास नहीं।याद कीजिए भीष्म जैसे हमारे महान पूर्वजों को और आजाद करिए अपने आपको विदेशियों की मानसिक गुलामी से।जो व्यक्ति अपना आत्मविश्वास और आत्मस्वाभिमान खो देता है वो बस एक गुलाम बनकर रह जाता है।ऐसा व्यक्ति कभी अपना विकास नहीं कर सकता।जगाना होगा हम भारतियों को अपना आत्मविश्वास क्योंकि हमें हमारे भारत माँ के खोए हुए सम्मान को फिर से वापस लाना है।हमारी रगों में जो हमारे महान पूर्वजों का खून दौड़ रहा है उसे लज्जित नहीं करना है हमें।हमें दिखा देना है अपने पूर्वजों को कि हम भी उन्हीं की महान संतान हैं जिनके चरणों में सारी दुनिया श्रद्धा से अपना सर झुकाती है।