मै भी अपने तन को निर्मल करके प्रातः काल की स्वच्छता और पवित्रता से अपने मन-मस्तिष्क कोभरने के लिए घर से बाहर सड़क पर निकल आया.मेरे आस-पास कोई बाग़ या उद्यान नहीं है इसलिए प्रातः-भ्रमणके लिए मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है।
ठंडा ख़त्म होने के बाद बसंत ऋतु की सुहानी सी प्यारी सुबह में बहुत दिन बाद ये सोचकर निकला कीप्रातः काल की हल्की-सी ठंडी-ठंडी(और फूलों के मनमोहक सुगंध से भरी हुई नहीं.वो सब चिड़ियों की सुबह कीचहचाहट और आम के पेड़ में लगे मंजर की मधुर सुगंध बागों में......यहाँ तो बस गाड़ियों के हार्न और उनसेनिकली जहरीली गैसें. ) बासंती हवा का सेवन कर मस्तिष्क को ताजगी से भर लूँगा और दिनभर के लिएधनात्मक उर्जा संचित कर लूँगा.धनात्मक उर्जा आती है प्रसन्नता से.मनुष्य जितना ज्यादा प्रसन्न होगा उसमेधनात्मक उर्जा का प्रवाह उतना ही ज्यादा होगा.गणित में(+ve enery is directly proportional to happiness.)
पर जरा सोचिए क्या हो जब आप सुबह-सुबह कुछ अच्छा देखने का विचार कर निकले हों और आपको बसगन्दगी ही गंदगी दिखाई दे.......! बचपन से ये बात सिखाई जाती है की सड़क पर अपने सामने देखकर चलो परमुझे नीचे देखकर चलना पड़ रहा था । जानते है क्यों, क्योंकि सड़क के किनारे का पूरा का पूरा हिस्सा एक गाढ़ालसलसा द्रव से नहाया हुआ था(कहीं ये पानी जैसा था कहीं लाल-लाल)२-३ मीटर का भी बीच में जगह नहीं था कीथोड़ी देर के लिए भी नजर उठाकर चल सकूं।
सोच रहे होंगे की फगुआ का समय है तो मुझे रंग-अबीर की बात करनी चाहिए.. .. .है न ... ... ...... !
पर रंग तो कृत्रिम पिचकारी से फेंकी जाती है न होली के दिन, लेकिन ये ख़ास द्रव प्राकृतिक
पिचकारी से फेंका जाता है बारहों महीना, हरेक दिन और हरेक पल . और ये हर भारतीय के पास है जिसका ये लोगजी खोलकर (या कहें मुह खोलकर) उपयोग करते हैं। आखिर भारतियों का मुंह है या पिचकारी.........! खोलते हैं तोबस पिच्च से थूकने के लिए ही। सुबह सुबह तो ज्यादा ही। कोई पान खाकर कोई दातून करके .कोई गुटखा खाके , कोई बीड़ी पीके कोई रात भर का जमा किया हुआ नाक का श्लेष्मा तो कोई खांस-खांस कर गाढ़ा पीला कफ . . ..सबझाडे- बुहाड़े सड़क पर फेंक-फेंक कर इतना घीना देते हैं की चलना दूभर हो जाता है। सड़क पर चलते समय कभीध्यान दीजिएगा हरेक १०-१५ सेकेंड में एक न एक आदमी जरूर आपको थूकता हुआ दिख जायेगा। हो सकता हैकोई एक व्यक्ति ही हरेक १०-१५ सेकेंड में थूकता हुआ दिख जाय।
शुरु में हरी-भरी बातें पढने के बाद अगर मन हरा-भरा हो गया होगा तो ये सब पढने के बाद तो मुरझा ही गया होगा,है न.....?अब सोचिये अगर पढने से ऐसा हो सकता है तो फिर मेरेसाथ तो ये बीता।
कि हमारे क्या किसी ने कभी कल्पना भी की होगी की जिस देश के वासी तन-मन की पवित्रता पर इतना ज्यादा ध्यान देते हैंस्वच्छ रहने के लिए इतनी सावधानी बरतते हैं कि अगर किसी व्यक्ति के पैर में गन्दा लगा हुआ है तो उसके पुरेशरीर के किसी भी अंग को अपने से स्पर्श तक होने नहीं होने देते है,ऐसा देश एक दिन गंदगी के ढेर पर सोएगा......। ?नहीं न.! किसे ने ये सोचा भी नहीं होगा और अभी भी विदेशों के लोग जो भारतियों के संस्कार कोजानते हैं वो भी ये कल्पना नहीं कर पाएंगे.पर हमारे देश का दुर्भाग्य देख लीजिए.वैसे बात कड़वी है पर सच्ची है कीदेश में अगर गन्दगी आयी है तो बाहर से,अंग्रेजों मुसलमानों और बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा.और दुःखकी बात तो ये की अबतक वोलोग भारतीय संस्कार में ढल नहीं पाए हैं।खैर ,,, जाने दीजिये ......... ।
वैसे एक बात तो मै अपने दिल की कहूँगा की अगर मेरे पास अधिकार या सामर्थ्य आ जाय तो सबसे पहले मै इसदेश की गंदगी को हटाकर इसे स्वच्छ आर सुन्दर बनाने का काम ही करूँगा
लेकिन फिर भी लगभग १००% लोग सड़क पर थूकते हैं। बड़ी-बड़ी गंदगी को हम भले ही दूर न कर पायें पर इसगंदगी को तो हम आसानी से दूर कर सकते हैं न ?या फिर नियम बनने तक का इन्तजार करेंगे............! अगर हमसब यह तय कर लें कि अगर थूकना ही पड़ा तो थूकने लायक जगह पर ही थूकेंगे किसी किनारे में। और भारत मेंइतनी ज्यादा गंदगी है कि उस लायक जगह ढूँढने में परेशानी भी नहीं होगी। तो सोचिये क्या आसानी से हमलोगइस समस्या का निदान नहीं कर सकते हैं......?क्या ये कोई कठिन काम है.......?
आशा है अगली बार जब भी किसी का सड़क पर थूकने का दिल करेगा तो मेरी ये बातें एक बारतो जरूर उसके दिल में आयेगी और उसे रूकने के लिए प्रेरित करेगी।
वैसे जो लोग नियम का इन्तजार कर रहे हैं तो याद रखियेगा कि नियम-क़ानून बुरे व्यक्तियों के लिए बनाये जाते हैंअच्छे आदमियों को असुविधा से बचाने के लिए। अगर भले लोग ही वो सब काम करने लगें तो फिर नियम किसकेलिए बनाये जाएँगे........?और अगर थूकने के लिए भी नियम-कानून बनाकर दंड का प्रावधान कर दिया जाय जैसाकि विदशों में है तो क्या अपने देश में ही खुद को हम पराधीन और बेगाने महसूस नहीं करने लगेंगे........?क्याहमारा अपना कोई कर्तव्य नहीं है...............?क्या इनसब छोटी- मोट बातों के लिए भी नियम बनाने पड़ेंगे औरक्या कभी नियम निर्माताओं ने सोचा होगा कि लोग इतने ज्यादा स्वार्थी हो जाएँगे कि इसके लिए भी नियम बनानेकी आवश्यकता होगी। इसलिए कृपया रूकिये ....आज से... । और दूसरे को रोकिये भी....... ।
एक बार सोचकर देखिये कि अगर हम सबलोग ऐसा सोच लें और कर लें ......,! ५ लाख खर्च करने की सामर्थ्य वाला आदमी ५०० खर्च कर ले, तो उसके घर कि सुन्दरता में तो चार चाँद लगेंगे ही पूरा देश साफ-सुथरा और सुन्दर बन जायेगा।
और एक बात जो शायद घर बनानेवालों के दिमाग में नहीं आती है कि वो अपने जिस घर की सुन्दरता में लाखों खर्च कर देते हैं वही घर उस बिखरे कूड़े के कारण कितना गन्दा दिखता है......?
वाली बीमारियाँ हमलोगों इसलिए P P l l l l zz zzz z z z zz z z... ..... ........ . ...... सरकार के कुछ करने की आशा छोड़कर खुद से जितना हद तक हो सकता है उतना करिए । अखीर गंदे हम होते हैं गंदगी में जीना हमें पड़ता है उससे होनेको होती है सरकार को नहीं वो तो मजे में रहती है.. मुझे ठीक-ठीक आँकड़ा तो पता नहींलेकिन शायद सबसे ज्यादा गंदगी से होने वाली बीमारियों से से लोग भारत में ही मरते हैं.
मेरे ब्लॉग पढने वाले २-३ लोग ही हैं पर मैं भगवान् से प्रार्थना कि इस लेख को ज्यादा-से ज्यादा लोग पढ़ें और मेरा भारत फिर से एक सुन्दर,
पवित्र,देवताओं के उतरने लायक जगह ,बन जाय.।
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