रविवार, 9 जनवरी 2011

हिंदु धर्म कोई धर्म ही नहीं है।

हाँ,हिंदु धर्म कोई धर्म नहीं है क्योंकि धर्म कोई ना कोई कर्म होता है और हिंदु किसी प्रकार का कोई कर्म नहीं है।हिंदु तो बस भारतीयों का सम्बोधन मात्र है।हिंदु धर्म है या नहीं इस पर विचार करने से पहले ये विचार करना होगा कि धर्म क्या होता है।

धर्म को मुसलमान,ईसाई,हिंदु,सिक्ख,जैन,बौद्ध आदि प्रकारों में बाँट दिया गया है क्योंकि इनलोगों के पूजा करने के तरीके भिन्न-भिन्न हैं और ये अलग-अलग गुरुओं पर अपनी विश्वास या श्रद्धा रखते है।मुसलमान अपना रसूल मुहम्मद को मानते हैं,ईसाई इसामसीह को ,जैन महावीर को आदि-आदि.....पर एक प्रश्न कि क्या किसी भी प्रकार से भगवान की पूजा-पाठ करना ही धर्म है???अगर हाँ तो फिर क्या एक नास्तिक व्यक्ति धार्मिक नहीं कहला सकता है??जबकि सच्चाई ये है कि एक नास्तिक व्यक्ति धार्मिक और भगवान का प्यारा हो सकता है और एक आस्तिक व्यक्ति भी अधार्मिक हो सकता है।

दूसरा प्रश्न ये कि अगर किसी गुरु,रसूल,पैगंबर या ईश्वर के पुत्र पर या राम-कृष्ण पर विश्वास करना ही धर्म है तो फिर हिंदु में तो लाखों-करोड़ो गुरु हैं।सब लोग अपने-अपने गुरु पर श्रद्धा रखते हैं और उनके बताए अनुसार ईश्वर की आराधना करते हैं तो इस तरह से तो हिंदु में ही लाखों धर्म होना चाहिए।जैसे आसाराम बापू जी के अनुयायी आसाराम धर्म वाले या कृपालु जी के अनुयायी कृपालु धर्म वाले।पर ऐसा नहीं है क्यों???अगर मुहम्मद पर विश्वास करने वाले एक अलग मुसलमान धर्म कहलाते हैं तो अन्य किसी गुरु पर विश्वास करने वाले भी अन्य धर्म वाले क्यों नहीं बन जाते??

सच बात तो ये है कि ना तो नमाज पढ़ना धर्म है ना गिरिजाघर में जाकर प्रार्थना करना धर्म है,ना किसी मंदिर में जाकर फूल-बेलपत्र चढ़ाकर पूजा करना धर्म है और ना ही ध्यान लगाना या हिमालय पर जाकर कठोर तपस्या कर लेना।भगवान पर विश्वास करना या किसी प्रकार से उनकी पूजा-आराधना करना धर्म नहीं है बल्कि ये सिर्फ हमें धार्मिक बनाने के लिए एक सहायक उपाय हैं।आज सब लोगों के लिए धर्म का अर्थ भगवान की किसी ना किसी प्रकार से पूजा-आराधना करना है।धर्म बस भगवान तक ही सिमट कर रह गया है।धर्म की परिभाषा बस ईश्वर के आस-पास ही घूमती रहती है।पर आज जरूरत है धर्म के उस परिभाषा की जिसमें किसी भगवान या पैगंबर का उल्लेख ना हो।

एक उदाहरण से समझते हैं।- -रामपुर गाँव में एक बगीचा था जिसमें अनगिनत फलों के पेड़ लगे हुए थे।बहुत ही विशाल और सुंदर बगीचा था वो। ये बगीचा अपने गुणों के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध था।गाँव के नाम पर ही उस बगीचे का नाम रामपुर बगीचा हो गया और उस बगीचे के सारे फल रामपुर बगीचे के फल के नाम से पहचाने जाने लगे।हालांकि सभी फलों के अलग-अलग नाम थे पर चूंकि सारे फल बहुत ही स्वादिष्ट थे इसलिए किसी को फल के नाम से कोई मतलब नहीं था।सब बस रामपुर बगीचे के फल के नाम से ही सारे फलों को जानते थे।उन फलों में एक फल ऐसा भी था जो बहुत ही स्वादिष्ट था और वो फल सिर्फ रामपुर बगीचे में ही था अन्य किसी दूसरे बगीचे में नहीं।कुछ समय के बाद वो फल रामपुर बगीचा का पहचान बन गया और उस फल का नाम भी रामपुर फल हो गया।लोग अन्य फलों की तरफ ध्यान कम देते,ज्यादा ध्यान उस रामपुर फल पर ही देने लगे।रामपुर फल का उपयोग काफी बढ़ गया तथा अन्य फलों को लोग भूलने लगे।एक समय ऐसा आया जब फल का मतलब लोग बस रामपुर फल ही समझने लगे।फल की परिभाषा बस रामपुरिया तक ही सिमटकर रह गया।जो व्यक्ति सिर्फ रामपुर फल खाते थे वो फल खाने वाले व्यक्ति समझे जाने लगे और जो लोग रामपुर बगीचे के अन्य फल खाते थे वे फल ना खाने वाले व्यक्ति समझे जाने लगे।

मेरी यह कहानी सबकुछ समझाने के लिए पर्याप्त है ।ये कहानी भारत,हिंदु और धर्म के साथ घटी घटना का प्रतिनिधित्व करती है।चलिए अब घूमा-फिराकर कहने की बजाय सीधे-सीधी बात करते हैं। धर्म क्या है???

इसका उत्तर शायद कोई यह दे सकता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए जो उपाय किए जाते हैं वो धर्म हैं।ठीक है।ये परिभाषा गलत नहीं है पर इस परिभाषा से मोक्ष-प्राप्ति का स्वार्थ मन में आ जाता है जो व्यक्ति को धर्म के मार्ग से भटका देता है क्योंकि मोक्ष-प्राप्ति का लोभ आ जाने पर इसकी पूर्ति में जो तत्व बाधक बनेंगे वो क्रोध का कारण बन जाएगा जो हमें धर्म मार्ग से भटका देगा।

धर्म या अधर्म का संबंध कर्म से होता है।हमारे द्वारा किया गया हरेक कार्य यहाँ तक कि हमारा सोना-उठना,खाना-पीना आदि दैनिक कार्य भी धर्म और अधर्म की श्रेणी में आता है।हमारे द्वारा किया गया हरेक कार्य या तो धर्म होता है या अधर्म।अब ये उस कार्य पर निर्भर करता है कि वो कार्य किस हद तक यानि कितना बड़ा धर्म है या कितना बड़ा अधर्म।

चूंकि कार्य अनगिणत हैं और परिस्थियाँ भी हमेशा बदलती रहती हैं इसलिए कर्म को आधार मानकर धर्म की परिभाषा नहीं दी जा सकती।किसी भी कर्म को धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत लाना अज्ञानता है क्योंकि जो कार्य किसी समय धर्म है वही कार्य दूसरे समय में अधर्म भी बन सकता है।अब प्रश्न ये उठता है कि हम ये निर्णय कैसे करें कि किस परिस्थिति में कौन सा कर्म धर्म है?

तो इस समस्या का बहुत ही सरल समाधान है।हमारा उद्देश्य,हमारी भावना।अच्छी भावना के साथ किया गया कर्म या कहें कि अच्छे उद्देश्य के लिए किया गया पाप से पाप कर्म भी धर्म है जबकि बुरा उद्देश्य लेकर बुरी भावना के साथ किया गया अच्छे से अच्छा कर्म भी पाप या अधर्म है।उदाहरण के लिए किसी स्त्री का बलात्कार करना सबसे बड़ा पाप कर्म है पर ये कर्म भी धर्म बन सकता है।जैसे श्री हरि को जालंधर की पत्नी वृंदा का शीलहरण करना पड़ा।ये कर्म पाप कर्म होते हुए भी धर्म बन गया था।हिंसा करना पाप है लेकिन युद्ध में हिंसा करना धर्म है।

दूसरी तरफ पूजा-पाठ,यज्ञ-हवन करना सबसे बड़ा पुण्य कार्य माना जाता है परंतु राजा दक्ष के द्वारा किया गया यज्ञ पाप कर्म था जिसके फलस्वरूप उसका विनाश हो गया।दक्ष ने शिव जी को अपमानित करने की भावना से यज्ञ कराया था।अपने इस बुरे विचार के साथ किया गया उसका पुण्य कर्म भी पापकर्म बन गया और उसके सर्वनाश का कारण बन गया।

प्रेम भाव से खिलाया गया शबरी का जूठा बेर भी भगवान राम को स्वादिष्ट लग रहा था।विदुर की पत्नी भगवान कृष्ण को केले के फल के बजाय उसका छिलका ही खिलाए जा रही थी और भगवान बड़े आनंद से खा भी रहे थे।विदुर जी अपनी पत्नी को टोकने ही वाले थे कि कृष्ण जी ने विदुर जी को रोक दिया और मग्न होकर छिलका ही खाते रहे।इन सब बातों से ये अर्थ निकलता है कि धर्म का संबंध कर्म से नहीं भावना से है।इसलिए तो ईश्वर के प्रति अपने हृदय में प्रेम और भक्ति रखकर लोग पेड़-पौधे,जानवर और पत्थर को पूजकर भी धन्य हो जाते हैं।

"हिन्दू धर्म,धर्म ही नहीं है"-ये शीर्षक मैंने इसलिए रखा है कि धर्म का कोई नाम होता ही नहीं है।धर्म तो कर्म या कर्तव्य होता है।जैसे अगर कोई स्त्री अपने पति के प्रति एकनिष्ठ होती है तो इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं।एक पुत्र का अपने पिता के प्रति जो कर्त्तव्य होता है उसे पितृ-धर्म कहते है।राष्ट्र के प्रति जो कर्त्तव्य होता है उसे राष्ट्र-धर्म कहते हैं।धर्म कर्तव्य का ही दूसरा नाम है।कर्तव्य अनंत हैं।हरेक तरह के कर्तव्य का अलग-अलग नाम होता है तो फिर धर्म को कोई एक नाम कैसे दिया जा सकता है???हमारे ग्रन्थों में तो हर जगह धर्म के नाम पर कर्तव्य की ही बात की गई है;पूजा-पाठ की नहीं,फिर लोग इतने भटक कैसे गए!!!?।जैसे-सीता जी पर जब सारी प्रजा संदेह करने लगे और उसे त्यागने की बात करने लगे तो राम जी अपने गुरु वशिष्ठ जी के पास गए और उनसे पूछते हैं कि उनका धर्म क्या है?वो अपना राजा होने का धर्म निभाएँ या पति होने का।कुछ लोग राम जी पर एक अयोग्य और अन्यायी पति होने का दोष देते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उस समय उनके लिए राज्य-धर्म,पत्नी धर्म से बढ़कर था जिसे निभाना पड़ा उन्हें।जो सीता उन्हें प्राणों से भी प्रिय थी उसे धर्म की खातिर त्यागना पड़ा उन्हें।

दूसरा सबसे अच्छा उदाहरण देखिए---अर्जुन को जब अपनों का मोह होता है तो वो युद्ध छोडकर सन्यास धारण करने की बात करता है।अब जरा सोचिए कि जो व्यक्ति राज्यसुख त्यागकर भिक्षा मांगकर साधु-सन्यासी बनना चाहता है तो ये बात तो धर्म के अंतर्गत आनी चाहिए पर उल्टे ये बात अधर्म और पाप बन जाता है उस समय।तब अर्जुन कहते हैं कि- हे केशव!बताईए कि इस समय मेरा धर्म क्या है?तब कृष्ण जी कहते हैं कि क्षत्रिय का धर्म युद्ध करना है।लोग सोचते हैं कि तपस्वी बनना सबसे बड़ा पुण्य का काम है और हिंसा करना पाप का पर यहाँ तो बात बिलकुल उल्टी है।इसलिए धर्म को कोई नाम नहीं दिया जा सकता।इसीकारण हमारे भारत-वर्ष में धर्म का कोई नाम नहीं था।इसे नाम तो अज्ञानी विदेशियों ने दिया।जरा सोचिए कि जिस भातीयों ने पूरी दुनिया का नामकरण किया उसने अपने धर्म को कोई नाम क्यों नहीं दिया था??सिंधु किनारे बसने के कारण भारतीयों को वे लोग हिन्दू कहने लगे और भारतीयों के हरेक कर्म को उसने एक हिन्दू-धर्म का नाम दे दिया।इस्लाम धर्म सिर्फ कुराण और मुहम्मद तक ही सीमित है।ईसाई के अनुसार सिर्फ बाईबिल में विश्वास कर लिया तो स्वर्ग और नहीं किया तो नरक।यानि बस एक बाइबिल पर विश्वास करके धर्म का काम कर लो बाँकी चोरी-डकैती लूट-पाट जो करना है करते रहो,सब सही है।इस्लाम के अनुसार भी धर्म बस मुहम्मद और कुराण पर विश्वास करना ही है।यानि कुरान पर विश्वास करके तो धर्म का काम पूरा हो ही गया।अब तो कुछ बचा नहीं इसलिए अपनी बिरादरी को बढ़ाने के लिए चोरी-बलात्कार,हिंसा आदि करते रहो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।चूंकि इनलोगों का धर्म बाइबिल या कुरान तक ही सीमित था इसलिए अपनी अत्यंत छोटी बुद्धि का परिचय देते हुए इनहोंने मानव-धर्म को पूजा-पाठ करने तक सीमित करके उसे हिन्दू धर्म का नाम दे दिया और दुख इस बात का है कि अब तक भारतीय अंग्रेजों और मुसलमानों की उसी छोटी बुद्धि में जकड़े हुए है।

मैं यह बात फिर से कह रहा हूँ कि धर्म को ना तो कोई पुस्तक तक सीमित किया जा सकता है ना ही कोई नाम दिया सकता है।धार्मिक पुस्तकें बस मार्गदशन कर सकती हैं।कुराण-बाइबिल जैसी एक-दो की बात तो क्या हजार पुस्तकों में भी धर्म को नहीं बांधा जा सकता।धर्म को अगर बांधा जा सकता है तो भावनाओं में।अच्छी और परोपकारी भावना धर्म तथा दूसरों को क्षति पहुंचाने वाली भावना अधर्म।कहा जाता है कि जब व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और नारद को उसे लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा सौंपा तो नारद जी ने उतनी सारी पुस्तकें पढ़ने से मना कर दी और उसका सार पूछ लिया।तो व्यास जी ने कहा कि परोपकार करना धर्म है,पुण्य है और दूसरों को किसी प्रकार हानि पहुंचाना अधर्म या पाप है,बस यही इन पुस्तकों का सार है।

निस्वार्थ कर्म करना धर्म है जो मोक्ष देने वाला होता है।अपने कर्त्तव्य को बिना अपने लाभ-हानि की चिंता किए निभाना ही धर्म है ।अपने कर्तव्य को बिलकुल निःस्वार्थ भाव से करना यानि की उस कर्म में मोक्ष प्राप्ति का भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए।कर्म बिलकुल निःस्वार्थ होना चाहिए।जैसे कि भीष्म जी ने किया था।जीवन भर निःस्वार्थ होकर सारे दुःख दूसरों के लिए सहते रहे और मोक्ष को प्राप्त हुए।उन्होंने जो किया वो एक कठिन तपस्या से कम नहीं था।

जरा सोचिए आज भारत में इतना भ्रष्टाचार क्यों है?स्वार्थ की वजह से ही ना?अगर सब धर्म का सही अर्थ समझ लें और निःस्वार्थ होकर अपना कर्त्तव्य निभाने लगें तो क्या ये भारत स्वर्ग नहीं बन जाएगा?

सारे धर्मों में राष्ट्र-धर्म सबसे बड़ा धर्म होता है।कितना अच्छा होता कि भारत में सबका एक ही धर्म होता राष्ट्र-धर्म यानि भारत-धर्म।एक ही जाती होती भारतीय जाति।एक देश,एक धर्म,एक जाति।सारा झगड़ा ही खत्म हो जाता।

कोई ना कोई कर्म ही धर्म या अधर्म कहलाता है और हिन्दू किसी प्रकार का कोई कर्म नहीं है इसलिए हिन्दू कोई धर्म नहीं है।हिन्दू तो भारत में रहने वाले लोग हैं।यानि हिन्दू का अर्थ भारतीय है।भारत के रहने वाले सारे लोग हिन्दू कहलाने चाहिए ना कि मूर्ति-पूजक लोग।इस सिद्धान्त से भारत में रहने वाले लोग चाहे वो मुसलमान हों या ईसाई हों सबको हिंदु की संज्ञा देनी चाहिए और उन्हें हिंदु कहकर ही संबोधित करना चाहिए।चूंकि मेरे अनुसार तो धर्म का कोई नाम नहीं हो सकता है इसलिए मुसलमान या ईसाई भी मेरे लिए कोई धर्म नहीं है एक संप्रदाय है।और हिंदु वो संप्रदाय है जो भारतीयों की सभ्यता-संस्कृति का प्रतीक है।हम हिंदुओं को अपने आपको एक भारतीय समझना चाहिए ना कि हिंदु धर्म वाले लोग।विदेशी तो हम भारतीय को अलग-अलग धर्म-संप्रदाय में बांटेंगे ही पर ये हमलोगों का कर्तव्य है कि हम अपने आपको ना भूलें।अपने आपको पहचानना हमारा अपना कर्तव्य है।भारत की सारी परंपरा,हर तरह के रीति-रिवाज,कर्म-काण्ड,सोच-विचार,चाल-ढाल पहनावा-ओढ़ावा सब एक हिंदु में समाहित होता है।एक हिंदु ही भारत का प्रतिनिधित्व करता है,कोई मुसलमान या ईसाई नहीं।मुसलमान अरब देश का प्रतिनिधित्व करता है और ईसाई पश्चिमी देशों का।हिंदु और भारतीय दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं।हिंदु यानि भारतीय।धर्म के नाम पर लोगों को मुसलमानों ने और ईसाईयों ने बाँटा।उसके बाद भारत देश को हिंदु के बदले धर्म-निरपेक्ष देश कहकर गांधी ने बाँटा।कोई भी कर्म या तो धर्म होता है या अधर्म।धर्म-निरपेक्ष का कोई अर्थ नहीं है।आपने चोरी की तो अधर्म या ना किया तो धर्म।

फिर धर्म-निरपेक्ष का मतलब क्या???धर्म के बाद सिर्फ अधर्म ही बचा रहता है।धर्म-निरपेक्ष अधर्म का ही पर्याय है।धर्म-निरपेक्ष शब्द धर्म को जबर्दस्ती घुसेड़ देता है समाज में क्योंकि निरपेक्षता की बात तब आती है जब धर्म की बात की जाएगी।यानि जब भी धर्म की बात आएगी तभी धर्म-निरपेक्षता की बात आएगी और इस धर्म-निरपेक्ष में धर्म किसी कर्म का प्रतिनिधित्व ना करके हिंदु,मुसलमान और ईसाई आदि संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।यानि धर्म-निरपेक्ष शब्द लोगों को हिंदु-मुसलमान आदि संप्रदायों में बांटते हैं।इस सिद्धान्त से धर्म-निरपेक्ष का नारा लगाने वाले सब मूर्ख हैं ,अधार्मिक अर्थात पापी हैं और देश को तोड़ने वाले देश-द्रोही हैं।अतः धर्म-निरपेक्षता का नारा लगाने वाले देश के दुश्मनों को कटघरे में खड़ा कर देना चाहिए।भारत धर्म-निरपेक्ष की बजाय एक धार्मिक देश होता तो धर्म के नाम पर इतनी हिसा ना हुई होती।

अंत में मैं सबसे यही कहना चाहूँगा कि विदेशी जिसे भी धर्म का नाम दें या जिस चीज को भी हिंदु धर्म समझें पर आप जरूर समझने का प्रयास करिए कि धर्म क्या है।पूजा-पाठ,ध्यान-साधना,ईश-भक्ति आदि धर्म का एक हिस्सा है धर्म नहीं।

11 टिप्‍पणियां:

  1. आप सही कह रहे है हिंदु धर्म कोई धर्म ही नहीं है जिसे आप हिंदु धर्म कह्ते है वह सनातन धर्म है हिन्दु ह मतलब हिन्दुस्तन मे रह्ने वले लोगो से है न कि धर्म से है अब आप सायद आपनी गलती सुधार लेंगे और माफी मंग लेंगे

    जवाब देंहटाएं
  2. टिप्पणी करने से पहले लेख को पूरा पढ़ तो लेते बेनामी जी॥

    जवाब देंहटाएं
  3. आज हिन्दू धर्म जिसे लोग समझ रहे हैं वो वास्तव में पूरी भारतीय सभ्यता-संस्कृति,परम्पराएँ,रीतिरिवाज,ज्ञान-विज्ञान,और दर्शन-शास्त्र है।

    जवाब देंहटाएं
  4. hindustan mai rahne wale ka matlab hai .....apne purvajo ke gyan ..satya ...sanatan(atma .parmatma ka gyan rakhe ...hindu

    जवाब देंहटाएं
  5. धर्म कर्तव्य का ही दूसरा नाम है। धर्म का संबंध पुण्य कर्म से है।
    सिलसिला जारी रखें ।
    आपको पुनः बधाई

    जवाब देंहटाएं
  6. मित्र अव्यालीक जी,
    कई महीने पहले आपने मेरी एक पोस्ट के नीचे अपना कमेंट देते हुए यह लिंक भी दिया था, परन्तु आपके इस तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण, शोधपूर्ण लेख को पढ़ने का अवसर आज मिल पाया.
    इस लेख के लिए आपको बधाई हो.
    यद्यपि धर्म को लेकर शास्त्रीय व्याख्याएँ और भी अधिक स्पष्ट हैं, तथापि आपने अत्यंत सरल रूप से जो जैसा लिखा है, प्रशंसनीय है.
    वर्तमान भारत में धर्म और धर्म-निरपेक्षता की जो अवधारणा प्रचारित हो चुकी है, वह भारत के शत्रुओं द्वारा कुटिलतापूर्वक भारत के स्वत्व को समाप्त करने के बहुआयामी प्रयासों का परिणाम है.
    लोग भ्रमित हैं, आपका यह लेख सत्य को उद्घाटित करने का एक अच्छा प्रयास है.

    जवाब देंहटाएं
  7. धन्यवाद के पात्र हो भाई सनातन धर्म ही सबसे पुराना धर्म हे अन्यथा हिन्दू धर्म तो हिन्दुस्थान के कारन पड़ा बाकि देशो मे भी सनातना धर्म हे

    जवाब देंहटाएं
  8. आप ने बड़े ही सुंदर और सरल तरीके से धर्म की परिभाषा बताई। जो कि सत्य है वास्तव मे धर्म समयानुसार ही निर्धारित होता है। किंतु वो कर्तव्य से धर्म या धर्म से कर्तव्य निर्धारित हो सकता है उस से भी जाएदा जरूरी है वो सत्य के साथ होने वाला कर्तव्य हो। तभी वह धर्म होगा। फिर चाहे वो युद्ध हो, चाहे त्याग, बस वो सत्य को स्वीकार करते हुए कर्तव्य हो।

    जवाब देंहटाएं
  9. धर्म की बड़ी सहज सरल शब्दों में सटीक व्याख्या की है। सनातन धर्म केवल धर्म नही विज्ञान भी है। सभी धर्मों की जननी सनातन ही है।
    साधुवाद

    जवाब देंहटाएं